पृष्ठ:वरदान.djvu/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
१५२
 

वार मेघ की गर्जना हुई―‘मुन्शी शालिग्राम की जय’ और सहस्त्रों मनुष्य स्वदेश-प्रेम के मद से मतवाले होकर दौड़े और सुवामा के चरणों की रज माथे पर मलने लगे। इन ध्वनियों से सुवामा ऐसी प्रमुदित हो रही थी जैसे महुअर के सुनने से नागिन मतवाली हो जाती है। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है। अमूल्य रत्न पाने से वह रानी हो गयी है। इस रत्न के कारण आज उसके चरणों की रज लोगों के नेत्रों का अंजन और माथे का चन्दन बन रही हैं।

अपूर्व दृश्य था। बारम्बार जय-जयकार की ध्वनि उठती थी और स्वर्ग के निवासियों को भारत की जागृति का शुभ-सबाद सुनाती थी। माता अपने पुत्र को कलेजे से लगाये हुए है। बहुत दिन के अनन्तर उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है, वह लाल जो उसकी जन्म-भर की कमाई था। फूल चारों ओर से निछावर हो रहे हैं। स्वर्ण और रत्नों की वर्षा हो रही है। माता और पुत्र कमर तक पुष्पों के समुद्र में डूवे हुए हैं। ऐसा प्रभावशाली दृश्य किसके नेत्रों ने देखा होगा।

सुवामा बालानी का हाथ पकड़े हुए घर की ओर चली? द्वार पर पहुॅचते ही स्त्रियाँ मगल-गीत गाने लगी और माधवी स्वर्ण-रचित थाल में धूप, दीप और पुष्पों से आरती करने लगी। बिरजन ने फूलों की माला–जिसे माधवी ने अपने रक्त से रञ्जित किया था―उनके गले में डाल दी। बालाजी ने सनल-नेत्रों से विरजन की ओर देखकर प्रणाम किया।

माधवी को बालाजी के दर्शन की कितनी अभिलाषा थी, किन्तु इस समय उसके नेत्र पृथ्वी की ओर झुके हुए हैं। वह बालाजी की ओर नहीं देख सकती। उसे भय है कि मेरे नेत्र हृदय के भेद को खोल देंगे। उनमें प्रेम-रस भरा हुआ है। अब तक उसकी सब से बड़ी अभिलाषा यह थी कि बालाजी का दर्शन पाऊँ। आज प्रथम बार माधवी के हृदय में नयी व्यभि- लापाएँ उत्पन्न हुई हैं, आज अभिलाषाओं ने सिर उठाया है, मगर पूर्ण होने के लिए नहीं, आज अभिलाषा-वाटिका में एक नवीन कली लगी है,