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पृष्ठ:वरदान.djvu/१६४

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काशी में आगमन
 

माता के शाप ने राजा दशरथ को पुत्रशोक में मृत्यु का स्वाद चखाया था। क्या सुवामा का यह आशीर्वाद प्रभावहीन होगा?

दोनों अभी इसी प्रकार बातें कर रही थी कि घण्टे और शख की ध्वनि आने लगी। धूम मची कि बालाजी आ पहुॅचे। स्त्रियों ने मंगल-गान आरम्भ किया। माधवी ने आरती का थाल ले लिया और मार्ग की ओर टकटकी बाँधकर देखने लगी। कुछ ही काल में अद्वैताम्बरधारी नवयुवकों का समुदाय दिखायी पड़ा। भारत सभा के सवा सौ सभ्य घोड़ों पर सवार चले आते थे। उनके पीछे अगणित मनुष्यों का झुण्ड था। सारा नगर टूट पड़ा। कन्धे से कन्धा छिला जाता था; मानो समुद्र की तरगें बढ़ती चली जाती हैं। इस भीड़ में बालाजी का मुखचन्द्र ऐसा दिखायी पड़ता था, मानों मेघाच्छादित चन्द्र उदय हुआ है। ललाट पर अरुण चदन का तिलक था और कण्ठ में एक गेरुए रंग की चादर पड़ी हुई थी।

सुवामा द्वार पर खड़ी थी, ज्योंही बालाजी का स्वरूप उसे दिखायी दिया धीरज हाथ से जाता रहे। द्वार से बाहर निकल आयी और सिर झुकाये, नेत्रों से मुक्ताहार गूँथती बालाजी की ओर चली। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है। वह उसे हृदय से लगाने के लिए उद्विग्न है।

सुधामा को इस प्रकार आते देखकर सब लोग रुक गये। विदित होता था कि आकाश से कोई देवी उतर आयीं है। चतुर्दिक सन्नाटा छा गया। बालाजी ने कई डग आगे बढ़कर माताज़ी को प्रणाम किया और उनके चरणों पर गिर पड़े। सुबामा ने उनका मस्तक अपने श्रङ्क में लिया। आज उसने अपना खोया हुआ लाल पाया है। उस पर ऑखों से मोतियों की वृष्टि कर रही है।

इस उत्साहवद्धर्क दृश्य को देखकर लोगों के हृदय जातीयता के मत से मतवाले हो गये। पचास सहस्त्र स्वर से ध्वनि आयी―‘बालाजी की जय।' मेघ गर्जा और चतुर्दिक् से पुष्पवृष्टि होने लगी। फिर उसी प्रकार दूसरी