तो मेरे चित्तमें पहिले ही से जमी हुई है; अवसर पाते ही अवश्य छेड़ूँगी?
सुवामा―अवसर तो कदाचित् ही मिले। इसका कौन ठिकाना? अभी जी में आये, कहीं चल दें। सुनती हूॅ, सोटा हाथ में लिये अकेले वनों में घूमते हैं। मुझसे अब वेचारी माधवी की दशा नहीं देखी जाती। उसे देखती हूॅ तो जैसे कोई मेरे हृदय को मसोसने लगता है। मैंने बहुतेरी स्त्रियाँ देखी और अनेको का वृत्तान्त पुस्तकों में पढा, किन्तु ऐसा प्रेम कहीं नहीं देखा। बेचारी ने आधी आयु रो-रोकर काट दी और कभी मुख न मैला किया। मैंने कभी उसे रोते नहीं देखा, परन्तु रोने वाले नेत्र और हँसनेवाले मुख छिपे नहीं रहते। मुझे ऐसी ही पुत्रवधू की लालसा थी, सो भी ईश्वर ने पूर्ण कर दी! तुमसे सत्य कहती हूॅ, मैं उसे पुत्रवधू ही समझती हूॅ। आज से नहीं, वर्षों से।
वृजरानी―आज उसे सारे दिन रोते ही बीता। बहुत उदास दिखायी देती है।
सुवामा―तो आज ही इसकी चर्चा छेड़ो। ऐसा न हो कि कल किसी ओर प्रस्थान कर दें, तो फिर एक युग प्रतीक्षा करनी पड़े।
वृजरानी―(सोचकर) चर्चा करने को तो मैं करूँ, किन्तु माधवी स्वय जिस उत्तमता के साथ यह कार्य कर सकती है, कोई दूसरा नहीं कर सकता।
सुवामा―वह बेचारी अपने मुख से क्या कहेंगी?
वृजरानी―उसके नेत्र सारो कथा कह देंगे।
सुवामा―लल्लू अपने मन में क्या कहेंगे?
वृजरानी―कहेंगे क्या? यह तुम्हारा भ्रम है जो तुम उसे कुँवारी समझ रही हो। वह प्रतापचन्द्र की पत्नी बन चुकी। ईश्वर के यहाँ उसका विवाह उनसे हो चुका। यदि ऐसा न होता तो क्या जगत् में पुरुष न थे? माधवी-जैसी स्त्री को कौन नेत्रों में न स्थान देगा? उसने अपना आधा यौवन व्यर्थ रो-रोकर बिताया है। उसने आज तक ध्यान में भी