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प्रेम का स्वप्न
 

किसी अन्य पुरुप को स्थान नहीं दिया। बारह वर्षो से तपस्विनी का जीवन व्यतीत कर रही है। वह पलँग पर नहीं सोयी। कोई रगीन वस्त्र नही पहना। केश तक नहीं गुॅथाये। क्या इन व्यवहारो से नहीं सिद्ध होता कि माधवी का विवाह हो चुका? हृदय का मिलाप सच्चा विवाह है। सिन्दूर का टीका, ग्रन्थि-बन्धन और भाँवर―ये सब समार के ढकोसले हैं।

सुवामा―अच्छा, जैसा उचित समझो करो। मैं केवल जग-हँसाई से डरती हूॅ।

रात को नौ बज गये थे। आकाश पर तारे छिटके हुए थे। माधवी वाटिका में अकेली बैठी हुई तारों को― देखती थी और मन में सोचती थी कि ये देखने में कैसे चमकीले हैं, किन्तु अति दूर है, कोई वहाँ तक पहुॅच सकता है? क्या मेरी आशाएँ भी उन्हीं नक्षत्रों की भाँति है? इतने में विरजन ने उसको हाथ पकड़कर हिलाया। माधवी चौक पड़ी।

विरजन―अँधेरे में बैठी यहाँ क्या कर रही है?

माधवी―कुछ नहीं, तारों को देख रही हूॅ। वे कैसे सुहावने लगते हैं, किन्तु मिल नहीं सकते।

विरजन के कलेजे में बछीं-सी लग गयी। धीरज धरकर बोल―वह तारे गिनने का समय नहीं है। जिस अतिथि के लिए आज भोर ही मे फूली नहीं समाती थी, क्या इसी प्रकार उसकी अतिथि-सेवा करेगी?

माधवी―मैं ऐसे अतिथि की सेवा के योन्य कब हूॅ?

विरजन―अच्छा, यहाँ से उठो तो मैं अतिथि-सेवा की रीति बताऊँ।

दोनों भीतर आयीं। सुवामा भोजन बना चुकी थी। बालाजी को माता के हाथ की रसोई बहुत दिनों में प्राप्त, हुई।, उन्होंने बड़े प्रेम से भोजन किया। सुवामा खिलाती जाती थी और रोती जाती थी। जब बालाजी खा-पीकर लेटे, तो विरजन ने माधवी से कहा―अब यहाँ कोने में मुख बाँधकर क्यों बैठी हो?

माधवी―कुछ दो तो खाके सो रहूॅ, अब यही जी चाहता है।