पृष्ठ:वरदान.djvu/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
वरदान
१७०
 

और निस्वार्थ जाति-सेवा का प्रताप था, जो उसने की थी। स्वजाति-सेवक के मान और प्रतिष्ठा का परिणाम के बलिदान होते हैं, जो वह अपनी जाति के लिए करता है। पण्डों और प्रासालों ने बालाजी का प्रतापवान् रूप देखा और स्वर सुना, तो उनका क्रोध शान्त हो गया। जिस प्रकार सूर्य के निकलने से कुहरा फट जाता है, उसी प्रकार बालाजी के आने से विरोधियों की सेना तितर-बितर हो गयी। बहुत―से मनुष्य―जो उपद्रव के उद्देश्य से आये थे―श्रद्धापूर्वक बालाजी के चरणों में मस्तक झुकाकर उनके अनुयायियो के वर्ग में सम्मिलित हो गये। बदलू शास्त्री ने बहुत चाहा कि वह पण्डो के पक्षपात और मूर्खता को उत्तेजित करें, किन्तु सफलता न हुई।

उस समय बालाजी ने एक परम प्रभावशाली वक्तृता दी जिसका एक-एक शब्द आज तक सुननेवालों के हृदय पर अंक्ति है और जो भारत-वासियों के लिए सदा दीपक का काम करेगी। बालाजी की वक्तृ-ताएँ प्राय सारगर्मित है। परन्तु वह प्रतिभा, वह ओज जिनसे यह वक्तृता अलंकृत है, उनके किसी व्याख्यान में दीख नहीं पड़ते। उन्होने अपने वाक्यों के जादू से थोड़ी ही देर में पण्डो को अहीरो और पासियों से गले मिला दिया। उस वक्तृता के अन्तिम शब्द थे―

यदि आप दृढता से कार्य करते जायँगे, तो अवश्य एक दिन आपको अभीष्ट सिद्धि का स्वर्ण-स्तम्भ दिखायी देगा। परन्तु वैर्य को कभी हाथ से न जाने देना। दृढता बड़ी प्रबल शक्ति हैं। दृढता पुरुष के सब गुणों का राजा है। दृढता वीरता का एक प्रधान अग है। इसे क्दापि हाथ से न जाने देगा। तुम्हारी परीक्षाएँ होंगी। तुम्हें लगातार निराशाओं का सामना करना पड़ेगा। वे तुम्हारी प्रतिवन्धक होंगी। ऐसी दशा में दृढता के अतिरिक्त कोई विश्वासपात्र पथ-प्रदर्शक नहीं मिलेगा। दृढता यदि सफल न भी हो सके,तो ससार में अपना नाम छोड़ जाती है।'

बालाजी ने घर पहुँचकर समाचार-पत्र खोला, मुख पीला हो गया