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पृष्ठ:वरदान.djvu/१८४

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विदाई
 

और सकरुण हृदय से एक ठण्डी साँस निकल आयी। धर्मसिंह ने घबरा-कर पूछा―कुशल तों है?

बालाजी―सदिया में नदी का बाँध फट गया; दस सहस्र मनुष्य गृहहीन हो गये। धर्मसिंह―ओ हो!

बालाजी―सहस्रों मनुष्य प्रवाह की भेंट हो गये। सारा नगर नष्ट हो गया। घरों की छतों पर नावें चल रही हैं। भारत-सभा के लोग पहुँच गये हैं और यथाशक्ति लोगों की रक्षा कर रहे हैं; किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है।

धर्मसिंह (सजलनयन होकर)―हे ईश्वर! तू ही इन अनाथों का नाथ है।

बालाजी―गोपाल-गोशाला वह गयी। एक सहस्र गायें जलप्रवाह की भेंट हो गयीं। तीन घण्टे तक निरन्तर मूसलाधार पानी बरसता रहा। सोलह इश्च पानी गिरा। नगर के उत्तरीय विभाग में सारा नगर एकत्र है। न रहने को गृह है, न खाने को अन्न। शव की राशियां लगी हुई हैं। बहुत-से लोग भूखे मर जाते हैं। लोगों के विलाप और करुण-क्रन्दन से कलेजा मुँह को आता है। सब उत्सात-पीड़ित मनुष्य बालाजी को बुलाने की रट लगा रहे हैं। उनका विचार है कि मेरे पहुँचने से उनके दुख दूर हो जायेंगे।

कुछ काल तक बालाजी ध्यान में मग्न रहे,तत्पश्चात् बोले―मेरा जाना आवश्यक है। मैं तुरन्त जाऊँगा। आप सदिया की भारत-सभा को तार दे दीजिये कि वह इस कार्य में मेरी सहायता करने को उद्यत रहे।

राजा साहब ने सविनय निवेदन किया―आशा हो तो मैं भी चलूँ?

बालाबी―मैं पहुँचकर आपको सूचना दूँगा। मेरे विचार में आपके जाने की कोई आवश्यकता न होगी।

धर्मसिंह―उत्तम होता कि आपःप्रातकाल ही जाते।