पृष्ठ:वरदान.djvu/१८८

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विदाई
 


का समाचार यहां भी पहुँचा और राजा धर्मसिंह यह कहते हुए सुनायी दिये-आप लोग बालाजी को विदा करने के लिए तैयार हो जायें। वे अभी सदिया जाते हैं।

यह सुनते ही अर्धरात्रि का सन्नाटा छा गया। सुवामा घबड़ाकर उठी और द्वार की ओर लपकी, मानो वह बालाजी को रोक लेगी। उसके संग सब-की-सब स्त्रियाँ उठ खड़ी हुई और उसके पीछे-पीछे चलीं। वृजरानी ने कहा-चची। क्या उन्हें बरबस विदा करोगी। अभी तो वे अपने कमरे में हैं।

'मैं उन्हें न जाने दूंगी। विदा करना कैसा?'

वृजरानी----उनका सदिया जाना आवश्यक है।

सुवामा---मैं क्या सदिया को लेकर चाटूँगी ? भाड़ में जाय ! मैं भी तो कोई हूँ। मेरा भी तो उन पर कोई अधिकार है ?

वृजरानी-तुम्हें मेरी शपथ, इस समय ऐसी बातें न करना । सहस्रो मनुष्य केवल उनके भरोसे पर जी रहे हैं। यह न जायेंगे तो प्रलय हो जायगा।

माता की ममता ने मनुष्यत्व और जातित्व को दवा लिया था,परन्तु वृजगनी ने समझा-बुझाकर उसे रोक लिया। सुवामा इस घटना को स्मरण करके सर्वदा पछताया करती थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैं आपे से बाहर क्यों हो गयी थी! रानीजी ने पूछा-विरजन ! बालाजी को जयमाल कौन पहिनायेगा?

बिरबन-बाप ।

रानीबी-और तुम क्या करोगी?

विरजन - मैं उनके माथे पर तिलक लगाऊँगी।

रानीजी-माधवी कहाँ है ?

विरचन--(धीरे से) उसे न छेड़ो। बेचारी अपने ध्यान में मम है। इसी बीच में बालाजी बाहर निकले। स्त्रियां भी उनकी ओर बढ़ीं।