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पृष्ठ:वरदान.djvu/२२

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शिष्ट जीवन के दृश्य
 

लिए हुए पन्ने काले कर रही है। घर के धन्धों से तो उसे पहिले ही कुछ प्रयोजन न था;लिखने का श्राना सोने में सोहागा हो गया। माता उसकी तल्लीनता देख-देखकर प्रमुदित होती,पिता हर्ष से फूला न समाता,नित्य नवीन पुस्तकें लाता कि विरजन सयानी होगी तो पढेगी। यदि कभी वह अपने पांव धो लेती,या भोजन करके अपने ही हाथ धोने लगती,तो माता महरियो पर बहुत क्रुद्ध होती-आँखें फूट गयी हैं। चर्बी छा गया है। वह अपने हाथ से पानी उड़ेल रही है और तुम खड़ी मुँह ताक्ती हो! इसी प्रकार काल बीतता चला गया,विरजन का बारहवाँ वर्ष पूर्ण हुश्रा,परन्तु अभी तक उसे चावल उबालना तक न अाता था। चूल्हे के सामने बैठने का कभी अवसर ही न अाया। सुवामा ने एक दिन उसकी माता से कहा-बहिन,विरजन सयानी हुई,क्या कुछ गुन-ढग न सिखायोगी?

सुशीला--क्या कहूँ,जी तो चाहता है कि लग्गा लगाऊँ, परन्तु कुछ सोचकर रुक जाती हूँ।

युवामा-क्या सोचकर रुक जाती हो?

सुशीला---कुछ नहीं। श्रालस था जाती है।

सुवामा-तो यह काम मुझे सौप दो। भोजन बनाना स्त्रियों के लिए सबसे आवश्यक बात है।

सुशीला-अभी चूल्हे के सामने उससे बैठा न नायगा।

सुवामा--काम करने ही से आता है।

}सुशीला--(झेपते हुए) फूल-से गाल कुम्हला जायेंगे।

सुवामा--(हँसकर) बिना फूल के मुरझाये कहीं फल लगते हैं?

दूसरे दिन से विरजन भोजन बनाने लगी। पहिले टस-पांच दिन उसे चूल्हे के सामने बैठने में वड़ा कष्ट हुश्रा। श्राग न जलती,फॅपने लगती तो नेत्रों से जल बहता। वे यूटी की भाँति लाल हो जाते। चिन्गारियों से कई रेशमी साड़ियाँ सत्यानाश हो गयीं हाथों में छाले पड़ गये। परन्तु क्रमश सारे क्लेश दूर हो गये। सुवामा ऐसी सुशीला ली थी कि कभी रुष्ट