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वरदान
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न होती। प्रतिदिन उसे पुचकारकर काम में लगाये रहती।

अभी विरनन को भोजन बनाते दो मास मे अधिक न हुए होंगे कि एक दिन उसने प्रताप से कहा-लल्लू,मुझे भोजन बनाना था गया।

प्रताप-सच!

विरजन--कल चची ने मेरा बनाया भोजन किया था। बहुत प्रसन्न हुई।

प्रताप---तो भई,एक दिन मुझे भी नेवता दो।

विरजन ने प्रसन्न होकर कहा-अच्छा,कल।

दूसरे दिन नौ बजे विरजन ने प्रताप को भोजन करने के लिए बुलाया। उसने जाकर देखा तो चौका लगा हुआ है। नवीन मिट्टी की मीठी-मीठी सुगन्ध श्रा रही है। श्रासन स्वच्छता से बिछा हुश्रा है। एक थाली में चावल और चपातियाँ हैं। दाल और तरकारियां अलग-अलग कटोरियों में रखी हुई हैं। लोटा और गिलास पानी से भरे हुए रखे हैं। यह स्वच्छता और ढग देखकर प्रताप सीधा मुशी सजीवनलाल के पास गया और उन्हें लाकर चौके के सामने खड़ा कर दिया। मुन्शीनी खुशी से उछल पड़े। चट कपड़े उतार,हाथ-पैर धो प्रताप के साथ चौके में ना बैठे। वेचारी विर-जन क्या जानती थी कि ये महाशय भी बिना बुलाये पाहुने हो जायेंगे। उसने केवल प्रताप के लिए भोजन बनाया था। वह उस दिन बहुत लनायी और टबी आँखों से माता की ओर देखने लगी। सुशीला ताड़ गयी। मुसकराकर मुन्शीनी से बोली-तुम्हारे लिए अलग भोजन बना है। लड़कों के बीच में क्या नाके कूद पड़े १

वृजरानी ने लनाते हुए दो थालियों में थोड़ा-थोड़ा भोजन परोसा।

मुंशीजी-विरजन ने चपातियां अच्छी बनायी है।नर्म,श्वेत और मीठी।

प्रताप-चावल देखिये,छिटक टो और चुन लो।.

मुन्शीजी-मैने ऐसी चपातियां कभी नहीं खायीं। सालन बहुत स्वादिष्ट है।

'विरचन। चचा को शोरवेदार भालू दो',यह कहकर प्रताप हँसने