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डिप्टी श्यामाचरण
 


लगा। विरजन ने लजाकर सिर नीचे कर लिया। पतीली शुष्क हो रही थी।

सुशीला-(पति से) अब उठोगे मी,सारी रसोई चट कर गये,तो भी अड़े बैठे हो।

मुन्शीजी----क्या तुम्हारी राल टपक रही है?

निदान दोनों रसोई की इतिश्री करके उठे। मुन्शीजी ने उसी समय एक मोहर निकालकर विरजन को पुरस्कार में दी।

डिप्टी श्यामाचरण की धाक सारे नगर में छायी हुई थी। नगर में कोई ऐसा हाकिम न था (जिसकी लोग इतनी प्रतिष्ठा करते हों। इसका कारण कुछ तो यह था कि वे स्वभाव के मिलनसार और सहनशील थे और कुछ यह कि उत्कोच (रिश्वत) से उन्हें बड़ी घृणा थी:न्याय-विचार ऐसी सूक्ष्मता से करते थे कि दस-बारह वर्ष के भीतर कदाचित् उनके दो-ही-चार फैसलों की अपील हुई होगी। अंग्रेजी का एक अक्षर न जानते थे;परन्तु वैरिस्टरों और वकीलों को भी उनकी नैतिक पहुँच और सूक्ष्म-दर्शिता पर श्राश्चर्य होता था। स्वभाव में स्वाधीनता कूट-कूटकर भरी थी। घर और न्यायालय के अतिरिक्त किसी ने उन्हें और कहीं पाते-नाते नहीं देखा। मुन्शी शालिग्राम नत्र तक जीवित थे,या यों कहिए कि वर्तमान थे,तब तक कमी-कमी चित्तविनोटार्थ उनके यहां चले नाते थे। अब से वे लुप्त हो गये,डिप्टी साहब ने घर छोड़कर हिलने की शपथ कर ली। कई वर्ष हुए एक वार कलक्टर साहब को सलाम करने गये थे। खानसामा ने कहा--'साहन्त्र स्नान कर रहे हैं। दो घण्टे तक बरामदे में एक मोढ़े पर बैठे प्रतीक्षा करते रहे। तदनन्तर साहब बहादुर हाथ में एक टेनिस वैट लिये हुए निकले और बोले-~-बाबू साहब,हमको खेट है कि श्रापको