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वरदान
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लोग दूर तथा समीप से आने लगे। आँगन में सुन्दर मण्डप छा गया। हाथ में कङ्गन बँध गयीं। यह कच्चे धागे का कङ्गन पवित्र धर्म की हथ-कड़ी है,जो कभी हाथ से न निकलेगी और मण्डप उस प्रेम और कृपा की छाया का स्मारक है,जो जीवनपर्यन्त सिर से न उठेगी। आज सन्ध्या को सुवामा,सुशीला,महराजिनें सब-की-सब मिलकर देवी की पूजा करने को गयीं। महरियां अपने धधों में लगी हुई थीं। विरजन व्याकुल होकर अपने घर में से निकली और प्रताप के घर आ पहुँची। चतुर्दिक सन्नाटा छाया हुआ था। केवल प्रताप के कमरे में धुँधला प्रकाश झलक रहा था। विरजन कमरे में आयी,तो क्या देखती है कि मेज़ पर लालटेन जल रही है और प्रताप एक चारपाई पर सो रहा है। धुँधले उजाले में उसका वदन कुम्हलाया और मलिन नजर आता है। वस्तुएँ सब इधर-उधर बेढंग पड़ी हुई हैं। ज़मीन पर मनों धून चढी हुई है। पुस्तकें फैली हुई है। ऐसा जान पड़ता है मानो इस कमरे को किसी ने महीनों से नहीं खोला। यह वही प्रताप है,जो स्वच्छता को प्राण-प्रिय समझता था। विरजन ने चाहा उसे जगा दूँ। पर कुछ सोचकर भूमि से पुस्तकें उठा-उठाकर आल्मारी में रखने लगी। मेज पर से धूल झाड़ी,चित्रों पर से गर्द का परदा उठा दिया। अचानक प्रताप ने करवट ली और उसके मुख से यह वाक्य निकला ―'विरजन! मैं तुम्हें भूल नहीं सकता। फिर थोड़ी देर पश्चात्-'विरचन! विरजन! कहाँ जाती हो,यहीं बैठो?' फिर करवट बदलकर―'न बैठोगी? अच्छा,जाओ। मैं भी तुमसे न बोलूँगी।' फिर कुछ ठहरकर―'अच्छा जायो,देखें कहाँ जाती हो?' यह कहकर वह लपका,जैसे किसी भागते हुए मनुष्य को पकड़ता हो। विरजन का हाथ उसके हाथ मे आ गया। उसके साथ ही आँखे खुल गयीं। एक मिनट तक उसकी भाव-शुन्य ध्दाष्टे विरजन की मुख की ओर गड़ी रही। फिर वह चौककर उठ बैठा और विरजन का हाथ छोड़कर बोला―‘तुम कब आयीं, विरजन? मै अभी तुम्हारा ही स्वप्न देख रहा था।'