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निठुरता और प्रेम
 

विरजन ने बोलना चाहा,परन्तु कण्ठ रुंध गया और आँखें भर पायीं। प्रताप ने इधर-उधर देखकर फिर कहा-क्या यह सब तुमने साफ किया? तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ। विरजन ने इसका भी कुछ उत्तर न दिया।

प्रताप-विरजन! तुम मुझे भूल क्यों नहीं जाती?

बिरजन ने भाई नेत्रों से देखकर कहा-क्या तुम मुझे भूल गये?

प्रताप ने लजित होकर मस्तक नीचा कर लिया। थोड़ी देर तक दोनों भावों से भरे भूमि की ओर ताकते रहे। फिर विरजन ने पूछा--तुम मुझसे क्यों रुष्ट हो? मैंने कोई अपराध किया है?

प्रताप-न जाने क्यों अव तुम्हें देखता हूँ,तो जी चाहता है कि कहीं चला नाऊँ।

बिरजन-क्या तुमको मेरी तनिक भी छोह नहीं लगती? में दिनभर रोया करती हूँ। तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती? तुम मुझसे बोलते तक नहीं। बतलाओ मैंने तुम्हें क्या कहा जो तुम रूठ गये?

प्रताप-मैं तुमसे रूठा थोड़े ही हूँ।

बिरमन-तो मुझसे बोलते क्यों नहीं?

प्रताप-मैं चाहता हूँ कि तुम्हें भूल जाऊँ। तुम धनवान हो,तुम्हारे माता-पिता धनी हैं,मैं अनाथ हूँ। मेरा तुम्हारा क्या साथ?

विरजन-अब तक तो तुमने कभी यह वहाना न निकाला था,क्या अब मैं अधिक धनवान हो गयी?

यह कहकर विरजन रोने लगी। प्रताप भी द्रवित हुआ। वोला-विरजन! हमारा-तुम्हारा बहुत दिनों तक साथ रहा। अब वियोग के दिन आ गये। थोड़े दिनों में तुम यहाँ वालों को छोड़कर अपमे ससुराल चली जानोगी। उस समय मुझे अवश्य ही भून जायोगी। इसलिए मै भी चाहता हूँ कि तुम्हें भूल वाऊँ। परन्तु कितना ही चाहता हूँ कि तुम्हारी बातें स्मरण में न आयें,वे नहीं मानती। अभी सोते-सोते तुम्हारा ही स्वप्न देख रहा था।