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वरदान
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रुक्मिणी -यही तो तुम्हारा लड़कपन है। तुम जानती नहीं,सुन्दर पुरुष अपने ही बनाव-सिंगार में लगा रहता है। उसे अपने श्रागे स्त्री का कुछ ध्यान ही नहीं रहता। यदि स्त्री परम रूपवती हो, तो कुशल है। नहीं तो थोड़े ही दिनों में वह उससे भागने लगता है। वह समझता है कि मैं ऐसी दूसरी स्त्रियों के हृदय पर सुगमता से अधिकार पा सकता हूँ। वेचारा काला और कुरूप पुरुष सुन्दर स्त्री पा जाता है,तो समझता है कि मुझे हीरे की खान मिल गयी। अपने रूप की कमी को वह प्यार और आदर से पूरी करता है। उसके हृदय में ऐसी धुकधुकी लगी रहती है कि मैं तनिक भी इससे खट्टा पड़ा तो वह मुझसे घृणा करने लगेगी।

चन्द्रकुँवर-दूल्हा सबसे अच्छा वह,जो मुँहसे बात निकलतेही पूरी करे।

{{Gap}]रामदेई-तुम अपनी बात न चलायो। तुम्हें तो अच्छे-अच्छे गहनों से प्रयोजन है-दूल्हा कैसा हो हो।

सीता--न जाने कोई अपने पुरुष से किसी वस्तु की आज्ञा कैसे करता है। क्या सकोच नहीं होता?

रुक्मिणी-तुम वपुरी क्या प्राज्ञा करोगी,कोई बात भी तो पूछे?

सीता-मेरी तो उन्हें देखने ही से तृप्ति हो जाती है। वत्राभूपणों पर वी ही नहीं चलता।

इतने में एक और सुन्दरी श्रा पहुँची,गहने से गोंटनी की भांति लटी हुई। बढिया जूती पहने,सुगध मे बसी,आँखों में चपलता वरस रही थी।

रामदेई-आऔ,रानी,आऔ,तुम्हारी ही कमी थी।

रानी-क्या करूँ,निगोड़ी नाइन से किसी प्रकार पीछा नहीं छूटता या। कुसुम की मा आओ तब नाके जूड़ा बँधा।

सीता--तुम्हारी बाकिट पर वलिहारी है।

रानी-इसकी क्या मत पूछो। कपड़ा टिये एक मास हुआ। दस-वारह बार दरजी सीकर लाया। पर कमो श्रास्तीन ढीली कर दी,कमी सीयन बिगाड दी,कभी उनाव बिगाड़ दिया। अभी चलते-चलते दे गया है।