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पृष्ठ:वरदान.djvu/३८

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सखियों
 


करता है,उस पर परदा डालता है। यह लोग करेगे तो थोड़ा,मिथ्या प्रलाप का श्राल्हा गाते फिरेंगे ज़्यादा। मैं तो तभी से उनकी एक बात भी सत्य नहीं मानती।

इतने में गुलविया ने आकर कहा-तुम तो यहाँ ठाड़ी बतलात हो। और तुम्हारी सखी तुमका आँगन में बुलौती हैं।

सेवती-देखो भाभी,अब देर न करो। गुलबिया,तनिक इनकी पिटारी से कपड़े तो निकाल ले।

कमला चन्द्रा का शृङ्गार करने लगी। सेवती सहेलियों के पास आयी। रुक्मिणी बोली-वाह बहिन,खूत्र! वहाँ नाकर बैठ रहीं;तुम्हारी दीवारों से बोलें क्या?

सेवती-कमला बहिन चली गयीं। उनसे बात-चीत होने लगी। दोनों पा रही हैं।

रुक्मिणी-लड़कोरी हैं न?

सेवती-हो,तीन लड़के हैं।

रामदेई-मगर काठी बहुत अच्छी है।

चन्द्रकुँवर-मुझे उनकी नाक बहुत सुन्दर लगती है,जी चाहता है,छीन लू।

सीता-दोंनों बहिनें एक-से-एक बढ़कर हैं।

सेवती-सीता को ईश्वर ने वर अच्छा दिया है,इसने सोने की गौर पूजी थी।

रुक्मिणी-(जलकर) गोरे चमड़े से कुछ नहीं होता।

सीता-तुम्हें काला ही भाता होगा।

सेवती-मुझे काला वर मिलता तो विष खा लेती।

रुक्मिणी-यों कहने को जो चाहे कह लो;परन्तु वास्तव में सुख काले ही वर से मिलता है।

सेवती-सुख नहीं,धूल मिलती है। ग्रहण-सा आकर लिपट जाता होगा।