उन पर हाथ रखकर रोने लगी। थोड़ी ही देर में दोनों चरण उष्ण जल- कणों से भींग गये। पतिव्रता स्त्री ने प्रेम के मोती पति के चरणों पर निछावर कर दिये। जब आवाज़ सभली तो उसने विरजन का एक हाथ थाम कर मुन्शीजी के हाथ में दिया और अति मन्द स्वर से कहा―स्वामीजी ! आपके सग बहुत दिन रही और जीवन का परम सुख भोगा। अब प्रेम का नाता टूटता है। अब मै पल-भर की और अतिथि हूँ। प्यारी विरजन को तुम्हें सौप जाती हूँ। मेरा यही चिह्न है। इस पर सदा दया-दृष्टि रखना। मेरे भाग्य मे प्यारी पुत्री का सुख देखना नहीं वढा था। इसे मैंने कभी कोई क्टु वचन नहीं कहा, कभी कठोर दृष्टि से नहीं देखा। यह मेरे जीवन का फल है। ईश्वर के लिए तुम इसकी ओर से वेसुध न हो जाना।’ यह कहते-कहते हिचकियाँ बँध गयीं और मूर्च्छा-सी आ गयी।
जब कुछ अवकाश हुआ तो उसने सुवामा के सम्मुख हाथ जोड़े और रोकर कहा―‘बहिन! विरजन तुम्हारे समर्पण है। तुम्हीं उसका माता हो। लल्लू! प्यारे! ईश्वर करे तुम जुग-जुग जीओ। अपनी बिरजन को भूलना मत। वह तुम्हारी दीना और मातृहीना बहिन है। तुममें उसके प्राण बसते हैं। उसे रुलाना मत, उसे कुढाना मत, उसे कभी कठोर वचन मत कहना। उससे कभी न रूठना। उसकी ओर से वेसुध न होना, नहीं तो वह रो-रोकर प्राण दे देगी। उसके भाग्य में न जाने क्या बदा है, पर तुम उसे अपनी सगी बहिन समझकर सदा ढाढ़स देते रहना । मैं थोड़ी ही देर में तुम लोगों को छोड़कर चली जाऊँगी, पर तुम्हें मेरी सौंह, उसकी ओर से मन मोटा न करना; तुम्हीं उसका वेड़ा पार लगानोगे। मेरे मन में बड़ी -बड़ी अभिलाषाएँ थीं, मेरी लालसा थी कि तुम्हारा व्याह करूँगी, तुम्हारे बच्चे को खिलाऊँगी। पर भाग्य में कुछ और ही बदा था।‘
यह कहते-कहते वह फिर अचेत हो गयी। सारा घर रो रहा था। मह- रिया, महराजिनं सत्र उसकी प्रशंसा कर रही थीं कि स्त्री नहीं, देवी थी।
रधिया―इतने दिन टहल करते हुए, पर कभी कठोर वचन न कहा।