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वरदान
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महराजिन―हमको बेटी की भाँति मानती थीं, भोजन कैसा ही बनाके रख दूँ, पर कभी नारान नहीं हुई। जब बातें करतीं, मुसकुरा के। महाराज जब आते तो उन्हें जरूर सीधा दिलवाती थीं।

सब इसी प्रकार की बातें कर रहे थे। दोपहर का समय हुआ। मह- राजिन ने भोजन बनाया; परन्तु खाता कौन? बहुत हट करने पर मुन्शीनी गये और नाम करके चले आये। प्रताप चौके पर गया भी नहीं। विरजन और सुवामा को भूख कहाँ? सुशीला कमी बिरजन को प्यार करती, कभी सुवामा को गले लगाती, कमी प्रताप को चूमती और कमी अपनी बीती कह-कहकर रोती। तीसरे पहर उसने सब नौकरों को बुलाया और उनसे अपराध क्षमा कराया। जब वे सब चले गये तब सुशीला ने सुवामा से कहा―‘बहिन, प्यास बहुत लगती है। उनसे कह दो अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दें।’ मुन्शीजी पानी लाये। सुशीला ने कठिनता से एक घुँँट पानी कण्ठ से नीचे उतारा और ऐसा प्रतीत हुआ, मानो किसी ने उसे अमृत पिला दिया हो। उसका मुख उज्ज्वल हो गया। आँखों में जल भर आया। पति के गले में हाथ डालकर बोली―‘मैं ऐसी भाग्यशालिनी हूँ कि तुम्हारी गोद में मरती हूँ।’ यह कहकर वह चुप हो गयी, मानो कोई बात करना ही चाहती है, पर सङ्कोच से नहीं कहती। थोड़ी देर पश्चात् उसने फिर मुन्शीनी का हाथ पकड़ लिया और कहा―‘यदि तुमसे कुछ माँँगूँ, तो दोगे?’

मुन्शीजी ने विस्मित होकर कहा―तुम्हारे लिए माँँगने की आवश्यकता है? नि सङ्कोच कहो।

सुशीला―तुम मेरी बात कभी नहीं टालते थे।

मुन्शीजी―मरते दम तक कमी न टालूँँगा।

सुशीला―डर लगता है, कहीं न मानो तो

मुन्शीजी―तुम्हारी बात और मैं न मानूँ?

सुशीला―मै तुमको न छोड़ूँगी। एक बात बतला दो–सिल्ली (सुशीला)