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वरदान
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जाती। पर विवाही कन्या पराये घर की हो जाती है, उस पर किसी का क्या अधिकार?

प्रतापचन्द्र और विरजन कितने ही दिनों तक माई-बहन की भाँति एक साथ रहे। पर अब विरजन की आँखें उसे देखते ही नीचे को झुक जाती थीं। प्रताप की भी यही दशा थी। घर में बहुत कम आता था। आवश्य- कतावश आता, तो इस प्रकार दृष्टि नीचे किये हुए और सिमटे हुए, मानो दुलहिन है। उसकी दृष्टि में वह प्रेम-रहस्य छिपा हुआ था, जिसे वह किसी मनुष्य―यहाँ तक कि विरजन पर भी प्रकट नहीं करना चाहता था।

एक दिन सन्ध्या का समय था। विदाई को केवल तीन दिन रह गये थे। प्रताप किसी काम से भीतर गया और अपने घर में लैम्प जलाने लगा कि विरजन आयी। उसका अचल आँसुओं से भींगा हुआ था। उसने आज दो वर्ष के अनन्तर प्रताप की ओर सजल नेत्र से देखा और कहा―लल्लू। मुझसे कैसे सहा जायगा?

प्रताप के नेत्रों में आँसू न आये। उसका स्वर भारी न हुआ। उसने सुदृढ भाव से कहा―ईश्वर तुम्हें धैर्य धारण करने की शक्ति देंगे।

विरजन का सिर झुक गया। आँखें पृथ्वी में गड़ गयीं और एक सिसकी ने हृदय-वेदना की वह अगाध क्था वर्णन की, जिसका होना वाणी द्वारा असम्भव था।

विदाई का दिन लडक्यिों के लिए क्तिना शोकमय होता है। बचपन की सब सखियों-सहेलियो, माता-पिता, भाई-बन्धु से नाता टूट जाता है। यह विचार कि मैं फिर भी इस घर में आ सकूँगी, उसे तनिक भी सतोप नहीं देता। क्योंकि अब वह आयेगी तो अतिथिभाव से आयेगी। उन लोगों से विलग होना, जिनके साथ जीवनोद्दान में खेलना और स्वातन्त्र्य-वाटिका में भ्रमण करना उपलब्ध हुया हो, उसके हृदय को विदीर्ण कर देता है। आज से उसके सिर पर ऐसा भार पड़ता है, जो आमरण उठाना पड़ेगा।