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विरजन की विदा
 

यात्रा का विचार कर रहे थे। उन्होंने क़म-क़म से सासारिक सम्बन्ध त्याग कर दिये थे। दिन-भर घर मे आसन मारे भगवद्गीता और योगवासिष्ठ आदि ज्ञान-सम्बन्धिनी पुस्तकों का अध्ययन किया करते थे। सन्ध्या होते ही गङ्गा-स्नान को चले जाते। वहाँ से रात्रि गये लौटते और थोड़ा-सा भोजन करके सो जाते। प्राय प्रतापचन्द्र भी उनके संग गंगा-स्नान को जाता। यद्यपि उसकी आयु सोलह वर्ष की भी न थी, पर कुछ तो निज स्वभाव, कुछ पैतृक संस्कार और कुछ संगति के प्रभाव से उसे अभी से वैज्ञानिक विषयों पर मनन और विचार करने मे बड़ा आनन्द प्राप्त होता था। ज्ञान तथा ईश्वर-सम्बन्धिनी बातें सुनते-सुनते उसकी प्रवृति भी भक्ति की ओर हो चली थी, और किसी-किसी समय मुशीजी से ऐसे सूक्ष्म विषयों पर विवाद करता कि वे विस्मित हो जाते । वृजरानी पर सुवामा की शिक्षा का उससे भी गहरा प्रभाव पड़ा था, जितना कि प्रतापचन्द्र पर मुन्शीजी की संगति और शिक्षा का। उसका पन्द्रहर्वा वर्ष था। इस श्रायु मे मन में नयी उमंगें तरगित होती हैं और चितवन में सरलता और चंचलता की जगह मनोहर रसीलापन बरसने लगता है। परन्तु वृजरानी अभी वही भोली -भाली बालिका थी। उसके मुख पर हृदय के पवित्र भाव झलकते थे और वार्तालाप में मनोहारिणी मधुरता उत्पन्न हो गयी थी। प्रात काल उठती और सबसे प्रथम मुन्शीजी का कमरा साफ करके, उनके पूजा-पाठ की सामग्री यथोचित रीति से रख देती। फिर रसोई के धन्धे में लग जाती। दोपहर का समय उसके लिखने-पढने का था। सुवामा पर उसका जितना प्रेम और जितनी श्रद्धा थी, उतनी अपनी माता पर भी न रही होगी। उसकी इच्छा बिरजन के लिए श्राज्ञा से कम न थी।

सुवामा की तो सम्मति थी कि अभी विदाई न की जाय। पर मुन्शीजी के हठ से विदाई की तैयारियाँ होने लगीं। ज्यों-ज्यों वह विपत्ति की घड़ी निकट आती, बिरजन की व्याकुलता बढती जाती थी। रात-दिन रोया करती। कभी पिता के चरणों पड़ती और कभी सुवामा के पदों में लिपट