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पृष्ठ:वरदान.djvu/६५

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वरदान
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इघर तो शराब उड़ रही थी, उधर विरजन पलंग पर लेटी हुई विचार में मग्न हो रही थी। बचपन के दिन भी कैसे अच्छे होते हैं। यदि वे दिन एक बार फिर आ जाते। आह! कैसा मनोहर जीवन था! संसार प्रेम और प्रीति की खान था। क्या वह कोई अन्य ससार था? क्या उन दिनों ससार की वस्तुएँ बहुत सुन्दर होती थीं? इन्हीं विचारों में आँखें झपक गयीं और बचपन की एक घटना आँखों के सामने आ गयी। लल्लू ने उसकी गुड़िया मरोड़ दी। उसने उसकी किताब के दो पन्ने फाड़ दिये। तब लल्लू ने उसकी पीट में जोर से चुटकी ली, बाहर भागा। वह रोने लगी और लल्लू को कोस रही रही थी कि सुवामा उसका हाथ पकड़े आयी और बोली―‘क्यों बेटी, इसने तुम्हें मारा है न? यह बहुत मार-मारकर भागता है। आज इसकी खबर लेती हूँ, देखू, कहाँ मारा है।’ लल्लू ने डबडवायी आँखों से बिरजन की ओर देखा। तब विरजन ने मुसकराकर कहा―‘मुझे इन्होंने कहाँ मारा―ये मुझे कभी नहीं मारते।' यह कहकर उसका हाथ पकड़ लिया। अपने हिस्से की मिठाई खिलायी और फिर दोनों मिलकर खेलने लगे। वह समय अब कहाँ?

रात्रि अधिक बीत गयी थी, अचानक विरजन को जान पड़ा कि कोई सामनेवाली दीवार धमधमा रहा है। उसने कान लगाकर सुना। बराबर शब्द आ रहे थे। कभी रुक जाते, फिर सुनायी देते। थोड़ी देर में मिट्टी गिरने लगी। डर के मारे विरजन के हाथ-पाँव फूलने लगे। कलेजा धक्-धक् करने लगा। जी कड़ा करके उठी और महराजिन को झिझोड़ने लगी। घिग्घी बॅधो हुई थी। इतने में मिट्टी का एक बड़ा ढेला सामने गिरा। महरानिन चौककर उठ बैठो। दोनों को विश्वास हुया कि चोर पाये हैं। महराजिन चतुर स्त्री थी। समझी कि चिल्लाऊँगी तो जाग हो जायगी। उसने सुन रखा था कि चोर पहिले सेंघ में पाँव टालकर देखते हैं, तब आप घुमते हैं। उसने एक डण्डा उठा लिया कि जब पैर डालेगा तो ऐसा तानकर मारूँगी कि टाँग टूट जायगी। पर चोर ने पाँव के स्थान पर सिर