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पृष्ठ:वरदान.djvu/६८

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६९
भ्रम
 

सिर की कसम, मैं बहुत अच्छी तरह हूँ।

परन्तु डिप्टी साहब की बुद्धि स्थिर न थी; समझे, यह मुझे रोककर विलम्ब कराना चाहता है। विनीत भाव से बोले―बच्चा! ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो, मैं सन्दूक से एक औषधि ले आऊँ। मैं क्या जानता था कि तुम इस नीयत से छात्रालय में जा रहे हो।

कमला―ईश्वर-साक्षी से कहता हूँ, मैं विलकुल अच्छा हूँ। मैं ऐसा लजावान् होता, तो इतना मूर्ख क्यों बना रहता? आप व्यर्थ ही डाक्टर साहब को बुला रहे हैं।

मुन्शीजी―(कुछ-कुछ विश्वास करके) तो किवाड़ बन्द करके क्या करते थे?

कमला―भीतर से एक पत्र आया था, उसका उत्तर लिख रहा था।

मुन्शीजी―और यह कबूतर वगैरा क्यों उड़ा दिये?

कमला―इसीलिए कि निश्चिन्ततापूर्वक पढूँ। इन्ही बखेड़ों में मेरा समय नष्ट होता था। आज मैंने इनका अन्त कर दिया। अब आप देखेंगे कि मैं पढने में कैसा जी लगाता हूँ।

अब जाके डिप्टी साहब की बुद्धि ठिकाने आयी। भीतर आकर प्रेमवती से समाचार पूछा तो उसने सारी रामायण कह सुनायी। उन्होंने जब.सुना कि विरजन ने क्रोध में आकर कमला के कनकौए फाड़ डाले और चर्खियां तोड़ डाली तो हँस पड़े और कमला के विनोद के सर्वनाश का भेद समझ में आ गया। बोले―जान पड़ता है कि बहू इन लालाजी को सीधा करके छोड़ेगी।

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भ्रम

वृजरानी की विदाई के पश्चात् सुवामा का घर ऐसा सूना हो गया, मानो पिंजरे से सुना उड़ गया। वह इस धर का दीपक और इस शरीर