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भ्रम
 

की सगति से लाभ उठाने के अवसर मिले थे कि उसकी दृष्टि में विचार की पवित्रता की भी उतनी ही प्रतिष्ठा थी जितनी आचार की पवित्रता की। यह कब सम्भव था कि यह विरजन को―जिसे कई बार वहिन कह चुका था और जिसे अब भी वहिन समझने का प्रयत्न करता रहता था― व्यानावस्था में भी ऐसे भावों का केन्द्र बनाता, जो कुवासनाओ से भले ही शुद्ध हों, पर मन के दूषित आवेगों से मुक्त नहीं हो सकते थे। जब तक मुन्शी संजीवनलाल विद्यमान थे, उसका कुछ-न-कुछ समय उनके संग, ज्ञान और धर्म-चर्चा में कट जाता था, जिससे आत्मा को सन्तोष होता था। परन्तु उनके चले जाने के पश्चात् आत्म-सुधार का यह अवसर भी जाता रहा।

सुवामा उसे यों मलिन-मन पाती तो उसे बहुत दुख होता। एक दिन उसने कहा―‘यदि तुम्हारा चित्त न लगता हो, तो प्रयाग चले जाओ,वहाँ स्यात् तुम्हारा जी लग जाय।’ यह विचार प्रताप के मन में भी कई बार उत्पन्न हुआ था; परन्तु इस भय से कि माता को यहाँ अकेले रहने मे कष्ट होगा, उसने इस पर कुछ ध्यान नहीं दिया था। माता का आदेश पाकर इरादा पक्का हो गया। यात्रा की तैयारियाँ करने लगा, प्रस्थान का दिन निश्चित हो गया। अब सुवामा की यह दशा है कि जब देखिये, प्रताप को परदेश मे रहने-सहने की शिक्षाएँ दे रही है―‘बेटा, देखो किसी से झगड़ा मत मोल लेना। झगड़ने की तुम्हारी वैसे भी आदत नहीं है, परन्तु समझा देती हूँ। परदेश की बात है; फूँक-फूँककर पग धरना। खाने-पीने में असयम न करना; तुम्हारी यह बुरी आदत है कि जाड़ों में सायंकाल ही सो जाते हो, फिर कोई कितना ही बुलाये, पर जागते ही नहीं। यह स्वभाव यदि परदेश में भी बना रहे तो तुम्हें साँझ का भोजन काहे को मिलेगा? दिन को थोड़ी देर के लिए सो लिया करना। तुम्हारी आँखों में तो दिन को जैसे नींद ही नहीं आती।' उसे जब अवकाश मिलता, बेटे को ऐसे ही समयोचित शिक्षाएँ दिया करती।

निदान प्रत्यान का दिन आ ही गया। गाड़ी दस बजे दिन को