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वरदान
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छूटती थी। प्रताप ने सोचा―विरजन से भेंट कर लूँ। परदेश जा रहा हूँ। फिर न जाने कब भेंट हो। चित्त को उत्सुक किया। माता से कह बैठा। सुवामा बहुत प्रसन्न हुई। एक थाल मे मोदक,समोसे और दो-तीन प्रकार के मुरब्बे रखकर रधिया को दिये कि लल्लू के सग जा। प्रताप ने बाल बनवाये,कपड़े बदले। चलने को तो चला,पर ज्यों-ज्यों पग आगे उठता है,दिल बैठता जाता है। भाँति-भाँति के विचार आ रहे हैं। विरजन न जाने मन में क्या समझे,क्या न समझे। चार महीने बीत गये,उसने एक चिट्ठी भी तो मुझे अलग से नहीं लिखी। फिर क्योंकर कहूँ कि मेरे मिलने से उसे प्रसन्नता होगी। अजी,अब उसे तुम्हारी चिंता ही क्या है? तुम मर भी जाओ तो वह आँसू न बहाये। यहाँ की बात और थी,वहाँ की बात और है। और मुझे यह क्यों सूझी कि कपड़े बदल-कर आया। यह अवश्य उसकी आँखों में खटकेगा। कहीं यह न समझे कि लालाजी बन ठनकर मुझे रिझाने पाये हैं। इसी सोच-विचार में बढता चला जाता था। यहां तक कि श्यामाचरण का मकान दिखायी देने लगा। कमला मैदान में टहल रहा था। उसे देखते ही प्रताप की वह दशा हो गयी जो किसी चोर की दशा सिपाही को देखकर होती है। झट एक घर की आड़ में छिप गया और रविया से बोला―‘तू जा, ये वस्तुएँ दे आ। मैं कुछ काम से बाजार जा रहा हूँ। लौटता हुआ जाऊँगा।‘ यह कह कर बाजार की ओर चला,परन्तु केवल दस ही डग चला होगा कि फिर महरी को बुलाया और बोला―‘मुझे स्यात् देर हो जाय, इसलिए न आ सकूँगा, कुछ पूछे तो यह चिट्ठी दे देना।’ यह कहकर जेब से पेन्सिल निकाली और कुछ पत्तियाँ लिखकर दे दी,जिससे उसके हृदय की दशा का भली-भाँति परिचय मिलता है।

‘मैं आज प्रयाग जा रहा हूँ,अब वहीं पढूँगा। जल्दी के कारण तुमसे नहीं मिल सका। जीवित रहूँगा तो फिर आऊँगा। कभी-कभी अपने कुशल-क्षेत्र की सूचना देती रहना। तुम्हारा―प्रताप’