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स्नेह पर कर्तव्य की विजय
 

तुम्हें पहिचाना नहीं, ऐसा मुख फीका पड़ गया है।

विरजन―अब अच्छी हो जाऊँगी, औषधि मिल गयी।

प्रताप संकेत समझ गया। हा शोक! मेरी तनिक-सी चूक ने यह प्रलय कर दिया। देर तक उसे समझाता रहा और प्रातःकाल जब वह अपने घर चला तो विरजन का वदन विकसित था, उसे विश्वास हो गया कि लल्लू मुझे भूले नहीं है और मेरी सुध और प्रतिष्ठा उनके हृदय में विद्यमान है। प्रताप ने उसके मन से वह कॉटा निकाल दिया, जो कई मास से खटक रहा था और जिसने उसकी यह गति कर रक्खी थी। एक ही सप्ताह में उसका मुखड़ा स्वर्ण हो गया, मानो कभी बीमार ही न थी।

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स्नेह पर कर्तव्य की विजय

रोगी जब तक बीमार रहता है उसे सुध नहीं रहती कि कौन मेरी औषधि करता है, कौन मुझे देखने के लिए आता है। वह अपने ही काष्ट में इतना ग्रस्त रहता है कि किसी दूसरे की बात का ध्यान ही उसके हृदय मे उत्पन्न नहीं होता; पर जब वह आरोग्य हो जाता है, तब उसे अपनी सुश्रूपा करनेवालों का ध्यान और उनके उद्योग तथा परिश्रम का अनुमान होने लगता है और उसके हृदय में उनका प्रेम तथा आदर बढ़ जाता है। ठीक यही दशा वृजरानी की थी। जब तक वह स्वयं अपने कष्ट में मग्न थी, कमलाचरण की व्याकुलता और कष्टों का अनुभव न कर सकती थी। निस्सन्देह वह उसकी खातिरदारी में कोई अंश शेष न रखती थी; परन्तु यह व्यवहार-पालन के विचार से होती थी न कि सच्चे प्रेम से। परन्तु जब उसके हृदय से वह व्यथा मिट गयी तो उसे कमला का परि- श्रम और उद्योग स्मरण हुआ और यह चिन्ता हुई कि इस अपार उपकार का प्रति-उत्तर क्या दूँ? मेरा धर्म था कि सेवा-सत्कार से उन्हें सुख देती,