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वरदान
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पर सुख देना कैसा, उलटे उनके प्राण ही की गाहक हुई हूँ। वे तो ऐसे सच्चे दिल से मेरा प्रेम करें और मैं अपना कर्त्तव्य भी न पालन कर सकूँ। ईश्वर को क्या मुँह दिखाऊँगी? सच्चे प्रेम का कमल बहुधा कृपा के प्रभाव से खिल जाया करता है। जहा रूप, यौवन, सम्पत्ति और प्रभुता तथा स्वाभाविक सौजन्य प्रेम का बीज बोने में अकृतकार्य रहते हैं, वहाँ प्रायः उपकार का जादू चल जाता है। कोई हृदय ऐसा वज्र और कठोर नहीं हो सकता, जो सत्य सेवा से द्रवीभूत न हो जाय।

कमला और वृजरानी में दिन-दिन प्रीति बढने लगी। एक प्रेम का दास था, दूसरी कर्तव्य की दासी। सम्भव न था कि वृजरानी के मुख से कोई बात निकले और कमलाचरण उसको पूरा न करे। अब उसकी तत्परता और योग्यता उन्ही प्रयत्नों में व्यय होती थी। पढना केवल माता-पिता को धोखा देना था। वह सदा रुख देखा करता और इस आशा पर कि यह काम उसकी प्रसन्नता का कारण होगा, सब कुछ करने पर कटिबद्ध रहता। एक दिन उसने माधवी को फुलवाड़ी से फूल चुनते देखा। यह छोटा-सा उद्यान घर के पीछे था। पर कुटुम्ब के किसी व्यक्ति को उससे प्रेम न था, अतएव चारहों मास उस पर उदासी छायी रहती थी। वृजरानी को फूलों से हार्दिक प्रेम था। फुलवाड़ी की यह दुर्गति देखी तो माधवी को कहा कि कभी-कभी इसमें पानी दे दिया कर। धीरे-धीरे वाटिका की दशा कुछ सुघर चली और पौधों में फूल लगने लगे। कमलाचरण के लिए इतना इशारा वहुत था । तन-मन से वाटिका को सुसज्जित करने पर उतारू हो गया। दो चतुर माली नौकर रख लिये। विविध प्रकार के सुन्दर-सुन्दर पुष्प और पौधे लगाये जाने लगे। भाँति-भाँति की घासें और पत्तियाँ गमलों मे सजायी जाने लगीं, क्यारियाँ और रविशें ठीक की जाने लगी। ठौर-ठौर पर लताएँ चढायी गयीं। कमलाचरण सारे दिन हाथ मे पुस्तक लिये फुलवाड़ी में टहलता रहता था और मालियों को वाटिका की सजावट और बनावट की ताकीद किया करता था, केवल