पृष्ठ:वरदान.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८५
स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय
 

इसीलिए कि विरजन प्रसन्न होगी। ऐसे स्नेह-भक्त का जादू किस पर न चल जायगा? एक दिन कमला ने कहा―‘आओ, तुम्हें वाटिका की सैर कराऊँ।' वृजरानी उसके साथ चली।

चॉद निकल आया था। उसके उज्ज्वल प्रकाश में पुष्प और पत्ते परम शोभायमान थे। मन्द मन्द वायु चल रहा था। मोतिये और वेले की सुगन्धि मस्तिष्क को सुरभित कर रही थी। ऐसे समय मे विरजन एक रेशमी साड़ी और एक सुन्दर स्लीपर पहिने रविशों में टहलती दीख पड़ी। उसके बदन का विकास फलो को लजित करता था, जान पड़ता था कि फूलों की देवी है। कमलाचरण बोले―आज परिश्रम सफल हो गया।

जैसे कुमकुमे में गुलाल भरा होता है, उसी प्रकार वृजरानी के नयनों में प्रेम रस भरा हुआ था। वह मुसकरायी, परन्तु कुछ न बोली।

कमला―मुझ जैसा भाग्यवान् मनुष्य संसार में न होगा।

विरजन―क्या मुझसे भी अधिक?

कमला मतवाला हो रहा था। विरजन को प्यार से गले लगा लिया।

कुछ दिनों तक प्रति दिन का यही नियम रहा। इसी बीच में मनोरंजन की नयी सामग्री उपस्थित हो गयी। राधाचरण ने चित्रों का एक सुन्दर अलबम विरजन के पास भेजा। इसमे कई चित्र चद्रा के भी थे। कहीं वह बैठी श्यामा को पढ़ा रही है, कही बैठी पत्र लिख रही है। उसका एक चित्र पुरुप-वेष में भी था। राधाचरण फोटोग्राफी की कला में कुशल थे। विरजन को यह अलबम बहुत भाया। फिर क्या था? कमला को धुन लगी कि मैं भी चित्र खींचन का अभ्यास करूँ और विरजन का चित्र खींचूँ। भाई के पास पत्र लिख भेजा कि केमरा ओर अन्य आव- श्यक सामान मेरे पास भेज दीजिये और और अभ्यास आरम्भ कर दिया । घर से चलते कि स्कूल जा रहा हूँ पर बीच ही में एक पारसी फोटोग्राफर की दूकान पर आ बैठते। तीन-चार मास के परिश्रम और उद्योग से इस कला में प्रवीण हो गये। पर अभी घर में किसी को यह बात मालूम न थी। कई बार विर-