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स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय
 

दिन यह चित्र खींचा होगा। चोथा पन्ना उलटा तो एक परम मनोहर और सुहावना दृश्य दिखायी दिया। निर्मल जल से लहराता हुआ एक सरोवर था और उसके दोनो तीरों पर, जहाॅ तक दृष्टि पहुॅचती थी, गुलाबों की छटा दिखायी देती थी। उनके कोमल पुष्प वायु के झोकों से लचके जाते थे। ऐसा ज्ञात होता था, मानो प्रकृति ने हरे आकाश में लाल तारे टॉक दिये है। किसी अग्रेजी चित्र का अनुकरण प्रतीत होता था। अलबम के और पन्ने अभी कोरे थे।

विरजन ने अपने चित्रों को फिर देखा और उस साभिमान आनन्द से, जो प्रत्येक रमणी को अपनी सुन्दरता पर होता है, अलबम को छिपाकर रख दिया। सन्ध्या को कमलाचरण ने आकर देखा, तो अलबम का पता नहीं। हाथो के तोते उड़ गये। चित्र उसके कई मास के कठिन परिश्रम के फल थे और उसे आशा थी कि यही अलबम उपहार देकर विरजन के हृदय में ओर भी घर कर लूॅगा। बहुत व्याकुल हुआ। भीतर जाकर विरजन से पूछा तो उसने साफ इन्कार किया। बेचारा घबराया हुआ अपने मित्रों के घर गया कि कोई उनमे से उठा ले गया हो। पर वहाँ भी फवतियों के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा। निदान जब महाशय पूरे निराश हो गये तो शाम को विरजन ने अलवम का पता बतलाया। इसी प्रकार दिवस सानन्द व्यतीत हो रहे थे। दोनों यही चाहते थे कि प्रेम-क्षेत्र में में श्रागे निकल जाऊँ। पर दोनों के प्रेम मे अन्तर था। कमलाचरण प्रेमोन्माद मे अपने को भूल गया। पर इसके विरुद्ध विरजन का प्रेम कर्त्तव्य की नींव पर स्थित था। हाँ, यह आनन्द -मय कर्तव्य था।

तीन वर्ष और व्यतीत हो गये। यह उनके जीवन के तीन शुभ वर्ष थे। चौथे वर्ष का प्रारम्भ आपत्तियों का आरम्भ था। कितने ही प्राणियों को संसार को सुख-सामग्रियाॅ इस परिमाण से मिलती है कि उनके लिए दिन सदा होली और रात्रि सदा दिवाली रहती है। पर कितने हो ऐसे