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पृष्ठ:वरदान.djvu/८३

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वरदान
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हतमाग्य जीव हैं, जिनके आनन्द के दिन एक बार बिजली की भॉति चमककर सदा के लिए लुप्त हो जाते है। वृजरानी उन्हीं अभागों में थी। वसन्त की ऋतु थी। सीरी-सीरी वायु चल रही थी। सरदी ऐसे कड़ाके की पड़ती थी कि कुओं का पानी जम जाता था। उस समय नगरों में प्लेग का प्रकोप हुआ। सहस्रों मनुष्य उसको भेंट होने लगे। एक दिन बहुत कड़ा ज्वर आया, एक गिल्टी निकली और बीमार चल बसा। गिल्टी का निकलना मानो मृत्यु का सदेशा था। क्या वैद्य, क्या डाक्टर, किसी की कुछ न चलती थी। सैकड़ों घरों के दीपक बुझ गये। सहस्त्रो बालक अनाथ और सहस्रों स्त्रियाँ विधवा हो गयीं। जिसको जिधर गली मिली, भाग निकला। प्रत्येक मनुष्य को अपनी-अपनी पड़ी हुई थी। कोई किसी का सहायक ओर हितैषी न था। माता-पिता बच्चों की छोड़कर भागे। स्त्रियों ने पुरुषों से सम्बन्ध परित्याग किया। गलियों में, सड़कों पर, घरों में जिधर देखिए मृतकों के ढेर लगे हुए थे। दुकानें बन्द हो गयीं। द्वारों पर ताले बन्द हो गये। चतुर्दिक धूल उड़ती थी। कठिनता से कोई जीव- धारी चलता फिरता दिखायी देता था और यदि कोई कायवश घर से निकल पड़ता तो ऐसी शीघ्रता से पॉव उठाता, मानो मृत्यु का दूत उसका पीछा करता आ रहा है। सारी बस्ती उज्जाड़ हो गयी। यदि आवाद ये ता कब्रिस्तान या श्मशान। चारों और डाकुओं की बन आयी। दिन-दोपहर ताले टूटते थे और सूर्य के प्रकाश में सेंधे पड़ती थीं। उस दारुण दुख का वर्णन नहीं हो सकता।

बाबू श्यामाचरण परम दृढ़चित्त मनुष्य थे। गृह के चारों ओर महल्ले-के महल्ले शून्य हो गये थे, पर वे अभी तक अपने घर मे निमय जमे हुए थे, लेकिन जब उनका साईस मर गया तो सारे घर में खलबली मच गयी। गाॅव में जाने की तैयारियाँ होने लगीं। मुंशीजी ने उस जिले के कुछ गॉव मोल ले लिए थे और मझगॉव नामी ग्राम में एक अच्छा-सा घर भी बनवा रखा था। उनकी इच्छा थी कि पेंशन पाने पर यही रहूँगा,