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कमला के नाम विरजन के पत्र
 

कठिनाइयों से कटेगा। तब मैं अपने पिया के दर्शन पाऊॅगी।

तुम्हारी―विरजन'
 

( ४ )

'प्यारे,
मझगॉव
 

तुम पापाणहृदय हो, कट्टर हो, स्नेह-हीन हो, निर्दयी हो, अकरुण हो, झूठे हो! मैं तुम्हे और क्या गालिया दूॅ और क्या कोसूॅ? यदि तुम इस क्षण मेरे सम्मुख होते, तो इस वज्रहृदयता का उत्तर देती। मैं कह रही हूॅ,तुम दगाबाज हो। मेरा क्या कर लोगे? नहीं आते तो मत आओ। मेरा प्राण लेना चाहते हो,ले लो। रुलाने की इच्छा है, रुलाओ। पर मै क्यों रोऊँ? मेरी बला रोवे। जब आपको इतना ध्यान नहीं कि दो घण्टे की यात्रा है, तनिक उसकी सुधि लेता जाऊँ, तो मुझे क्या पड़ी है कि रोऊॅ और प्राण खोऊॅ?

ऐसा क्रोध आ रहा है कि पत्र फाड़कर फेंक दूॅ और फिर तुमसे बात न करूॅ। हा। तुमने मेरी सारी अभिलाषाएँ कैसे धूल में मिलायी है? होली। होली। किसी के मुख से यह शब्द निकला और मेरे हृदय मे गुदगुदी होने लगी,पर शोक। होली बीत गयी और में निराश रह गयी। पहिले यह शब्द सुनकर आनन्द होता था। अब दुःख होता है। अपना अपना भाग्य है। गाॅव के भूखे नगे लँगोटी में फाग खेलें, आनन्द मनावें, रंग उड़ावें और मै अभागिनी अपनी चारपाई पर सफेद साड़ी पहिने पड़ी रहूॅ। शपथ ले लो जो उसपर एक लाल धब्बा भी पड़ा हो। शपथ ले लो जो मैंने अबीर और गुलाल हाथ से छुई भो हो। मेरी इत्र मे बसी हुई अबीर, केवड़े मे घोली गुलाल, रचकर बनाये हुए पान सब तुम्हारी अकृपा का रोना रो रहे हैं। माधवी ने जब बहुत हठ की, तो मैने एक लाल टीका लगवा लिया। पर आज से इन दोषारोपणो का अन्त होता है। यदि फिर कोई शब्द दोषारोपण का मुख से निकला तो जवान काट लूँगी।