परसों सायंकाल ही से गाॅव में चहल-पहल मचने लगी। नव- युवकों का एक दल हाथ में डफ लिये,अश्लील शब्द बकते द्वार-द्वार फेरी लगाने लगा। मुझे ज्ञात न था कि आज यहाॅ इतनी गालियाॅ खानी पड़ेगी। लजाहीन शब्द उनके मुख से इस प्रकार बेधड़क निकलते थे जैसे फूल झड़ते हों। लज्जा और सकोच का नाम न था। पिता पुत्र के सन्मुख और पुत्र पिता के सम्मुख गालियाॅ वक रहे थे। पिता ललकारकर पुत्र-वधु से कहता है―‘आज होली है।' वधू घर में सिर नीचा किये हुए सुनती है और मुसकरा देती है। हमारे पटवारी साहब तो एक ही महात्मा निकले। आप मदिरा में मस्त, एक मैली-सी टोपी सिर पर रखे इस दल के नायक थे। उनकी बहू-बेटियाँ उनकी अश्लीलता के वेग से न बच सकीं। गालियाॅ खाओ हँसो। यदि वदन पर तनिक भी मैल आये, तो लोग समझेंगे कि इसका मुहर्रम का जन्म है। भली प्रथा है।
लगभग तीन बजे रात्रि के झुण्ड होली माता के पास पहुँचा। लड़के अग्नि-क्रीड़ादि में तत्पर थे। मैं भी कई स्त्रियों के साथ गयी, वहाँ स्त्रिया एक ओर होलियाॅ गा रही थीं। निदान होली में आग लगाने का समय आया। अन्गि लगते ही ज्वाला भड़की और सारा आकाश स्वण- वर्ण हो गया। दूर-दूर तक के पेड़-पत्ते प्रकाशित हो गये। अब इस अग्निराशि के चारों ओर लोग 'होली माता की जय।' चिल्ला-चिल्लाकर दौड़ने लगे। सबके हाथो में गेहूँ और जौ की बालियाॅ थीं, जिसको वे इस अग्नि में फेकते जाते थे।
जब ज्वाला बहुत उत्तेजित हुई, तो लोग एक किनारे खड़े होकर ‘कबीर' कहने लगे। छः घण्टे तक यही दशा रही। लकड़ी के कुन्दों से चटाक-पटाक के शब्द निकल रहे थे। पशुगण अपने-अपने खूटों पर मारे भय के चिल्ला रहे थे। तुलसा ने मुझसे कहा―‘अब की होली की ज्याला टेढ़ी जा रही है। कुशल नहीं। जब ज्वाला सीधी जाती है, गॉव मे साल भर आनन्द की बधाई बजती है। परन्तु ज्वाला का टेढी होना अशुभ