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पृष्ठ:वरदान.djvu/९६

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कमला के नाम विरजन के पत्र
 

ऋण लिया था। वह अभी तक चुका न सका था। महाजन ने सोचा कि इसे हवालात ले चलूँ तो रुपये वसूल हो जायँ। राधा कन्नी काटता फिरता था। आज द्वेषियो को अवसर मिल गया और वे अपना काम कर गये। शोक! मूल धन वीस रुपये से अधिक न था। प्रथम मुझे भात होता तो वेचारे पर त्योहार के दिन यह आपत्ति न आने पाती। मैने चुपके से महाराज को बुलाया और उन्हें बीस रुपये देकर राधा को छुड़ाने के लिए भेजा।

उस समय मेरे द्वार पर एक टाट बिछा दिया गया था। लालाजी मध्य में कालीन पर बैठे थे। किसान लोग घुटने तक धोतियाॅ बाॅधे, कोई कुर्ता पहिने, कोई नग्न देह, कोई सिर पर पगड़ी बांध और कोई नंगे सिर मुख पर अबीर लगाये―जो उनके काले वर्ण पर विशेष छटा दिखा रही थी ―आने लगे। जो आता, लालाजी के पैरों पर थोड़ी-सी अबीर रख देता। लालाजी भी अपनी तश्तरी मे से थोड़ी-सी अबीर निकालकर उसके माथे पर लगा देते और मुसकराकर कोई दिल्लगी की बात कह देते थे। वह निहाल हो जाता,सादर प्रणाम करता और ऐसा प्रसन्न होकर आ बैठता, मानो किसी रंक ने रत्न-राशि पायी है मुझे स्वप्न में भी ध्यान न था कि लालाजी इन उजड्ड देहातियो के साथ बैठकर ऐसे आनन्द से वार्तालाप कर सकते हैं। इसी बीच में काशी भर आया। उसके हाथ मे एक छोटी सी कटोरी थी। वह उसमें अबीर लिये हुए था। उसने अन्य लोगों की भाँति लालाजी के चरणों पर अबीर नहीं रखी, किन्तु बड़ी धृष्टता से मुट्ठी भर लेकर उनके मुख पर भली-भॉति मल दी। मै तो डरी, कहीं लालाजी रुष्ट न हो जायँ। पर वह बहुत प्रसन्न हुए और स्वयं उन्होंने भी एक टीका लगाने के स्थान पर दोनों हाथों से उसके मुख पर अबीर मली। उसके साथी उसकी ओर इस दृष्टि से देखते थे कि निस्सन्देह तू वीर है और इस योग्य है कि हमारा नायक बने। इसी प्रकार एक एक करके दो- ढाई सौ मनुष्य एकत्र हुए। अचानक उन्होंने कहा―‘आज कहीं राधा