पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/११

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का पता लग जाता, और उसके साथही श्रीहर्ष की अप्रतिम कविता का भी अलभ्य लाभ होता।

प्राचीन काल में संस्कृत का प्रचार, इस देश में, अधिकता से था। उस समय अनेक विद्वान् संस्कृत विद्या की पराकाष्ठा को पहुँच कर अपना यश देश देशान्तरों में पहुँचाते थे और नाना प्रकार के ग्रन्थ लिखकर अपना नाम अजरामर करने का प्रयत्न करते थे। राजाओं के यहाँ उनको आश्रय मिलता था, अतएव जीविका का प्रबन्ध हो जाने से वे लोग स्वच्छन्दतापूर्वक पुस्तकावलोकन और पुस्तक-निर्म्माण में अपना समय व्यतीत करते थे। प्रायः कोई भी माण्डलिक राजा ऐसे न थे जिनकी सभा में एक एक दो दो संस्कृत के विद्वान् और कवि न रहे हों। इस पर भी संस्कृत भाषा में जीवनचरितों की इतनी कमी देखकर आश्चर्य्य होता है। प्रत्येक राजा के आश्रित कवि अथवा विद्वान् पण्डित यदि अपने आश्रय देनेवाले का चरित लिखते तो उसके साथ वे अपना भी नाम चिरस्मरणीय कर जाते। जीवनचरितों का प्रायः अभाव सा देखकर यह अनुमान होत है कि विक्रमाङ्कदेवचरित के समान प्रन्थ यदि लिखे गये थे