इन पर विशेष आस्था होने से शायद उन्होंने अपने ग्रन्थों के अधिक लोकप्रिय होने की सभावना समझी। अस्तु।
विक्रमाङ्कदेवचरित, जिस पर हम यह निबन्ध लिख रहे हैं, जीवनचरितों में गिना तो अवश्य जा सकता है, परन्तु उसमें चरितसम्बन्धी सामग्री बहुत नहीं है। कवि ने साहित्य-शास्त्र के नियमों का अनुसरण करके सर्ग के सर्ग ऋतु, जल-विहार, वाटिका-विहार, सायं और प्रातःकाल आदि के वर्णन से भर दिये हैं। इस काव्य में सब १८ सर्ग हैं, उनमें से यदि कवि अप्रासङ्गिक बातों का वर्णन न करता तो केवल आठ नौ सर्ग में पुस्तक समाप्त हो गई होती। सातवें से तेरहवें सर्ग तक की तो कोई आवश्यकता ही न थी; उनके न होने से विक्रमाङ्क के चरित-वर्णन में कुछ भी न्यूनता न आती। परन्तु ऋतु और नायिका के सर्वाङ्ग आदि का वर्णन महाकाव्य का लक्षण माना गया है, इस लिए बिल्हण को इतने सर्ग और बढ़ाने पड़े। आदि से लेकर अन्त तक इस काव्य के लिखे जाने की प्रणाली ऐसी आलङ्कारिक और अतिशयोक्तियों से पूर्ण है कि