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श्री हर्ष


इ. स. ६४३ का फेब्रुआरी वा मार्च महिना होगा। कुमार राजा, वल्लभी के राजा तथा इस प्रकार अन्य १८ राजाओं ने हर्ष का स्वागत किया। इस समय विहार के नालन्द मठ के एक हज़ार के लगभग तथा जैन ब्राह्मण कुल मिला कर ३वा ४ हज़ार साधु वहां उपस्थित थे। इस अवसर के लिये गङ्गा तट पर एक विशेष मठ बनवाया गया था और एक सौ पाद ऊंचे मिनार में हर्ष के कद की बुद्धदेव की एक सोने की मूर्ति स्थापित की गई थी हर्षने शकदेव का वेश पहिना और कुमार राजाने ब्रह्मा का स्वरूप लिया था हर्षने इस समय अनेक कीमती भेट लोगों को दी। एक दिन अचानक उपरोक्त मठ में आग लग गई और उसका एक बड़ा भाग जल गया परन्तु हर्ष के आने से वह आग अद्भुत प्रकार से बुझ गई। स्तूप के ऊपर चढ़ कर जब हर्ष सष्टि का सौन्दर्य देख उतर रहा था तो एक पागल मनुष्यने छुरी द्वारा उसका वध करना चाहा, परन्तु आसपास के मनुष्योंने उसे पकड़ लिया और इस प्रकार हर्ष की रक्षा हुई। अन्त में उसी आदमी ने स्वयं ही स्वीकार किया कि हर्ष बौद्ध लोगों पर विशेष प्रेम