पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/३१

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समान जानते हैं तब महाराज कर्णाटक की दी हुई उस विशेष विभूति को भी उसने वञ्चना समझा।

कल्याण के त्रिभुवनमल्ल विक्रमादित्य ही का दूसरा नाम पर्माडि है। अतएव यदि बिल्हण ने हर्षदेव का सिंहासन पर आसीन होना देखा तो यह निःसंशय सिद्ध हो गया कि उसने १०८८ ईसवी के पहले ही विक्रमाङ्कदेवचरित की रचना की।

राजतरङ्गिणी के तीन श्लोक, जो ऊपर दिये गये वे, उस समय की सूचना देते हैं जिस समय (अर्थात् १०६२ से १०८० तक) कलश नाम मात्र का राजा था। बिल्हण ने उसी बीच में काश्मीर छोड़ा होगा; उस समय नहीं जिस समय कलश ने राज्य का सूत्र अपने हाथ में ले लिया था; क्योंकि बिल्हण ने भारतवर्ष के अनेक भागों में भ्रमण किया है और विक्रमाङ्कदेवचरित लिखने के पहले कई वर्ष तक वह कल्याण में रहा है। ये सब बातें आठ वर्ष, अर्थात् १०८० ईसवी से १०८८ ईसवी के अभ्यन्तर, में न हुई होंगी। इन कारणों से यह अधिक सम्भव जान पड़ता है कि जिस समय कलश को नाम मात्र के लिए: राज्य की प्राप्ति हुई थी उसी समय अर्थात्