पर, १०८८ ईसवी में, की थी। इस चढ़ाई का वृत्तान्त एशियाटिक सोसायटी के जरनल के चौथे भाग में दिया हुआ है। यदि विक्रमाङ्कदेवचरित लिखने के पहले ही विक्रमने यह चढ़ाई की होती तो बिल्हण ने अपने काव्य में उसका उल्लेख अवश्य किया होता। इस विषय का दूसरा प्रमाण राजतरङ्गिणी का सातवाँ तरङ्ग है। वहाँ ये तीन श्लोक हैं-
काश्मीरेभ्यां विनिर्यान्तं राज्ये कलशभूपतेः।
विद्यापतिं य कर्णाटश्चक्रे पर्माडिभूपतिः॥९३६॥
प्रसर्यतः करटिभिः कर्णाटकटकान्तरे।
राज्ञोऽग्रे ददृशे तुङ्गं यस्यैवातपवारणम्॥९३७॥
त्यागिनं हर्षदेवं स श्रुत्वा सुकविबान्धवम्।
बिल्हणो वञ्चनां मेने विभूति तावतीमपि॥६३८॥
अर्थात् महागज कलश के समय में बिल्हण ने काश्मीर छोड़ा। कर्णाटक के पर्माडि-नरेश ने उसे अपना प्रधान पण्डित बनाया। जब वह हाथी पर सवार होकर कटक में चलता था तब वहाँ के राजा के आगे उसके शीश पर छत्र दृष्टिगोचर होता था। उसने जब यह सुना कि महादानी काश्मीर-नरेश हर्षदेव कवियों को अपने बन्धु के