सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(७८)


की ओर दौड़ना दृष्टि का हरिणियों ही से सम्बन्ध सूचित करता है! उसके नेत्र इतने बड़े थे कि कान तक चले गये थे, यह भाव।

सन्ध्या-वर्णन-

मानुमानपरदिग्वनिताया-
श्चुम्बतिस्म मुखमुदगतरागः ।
पद्मिनी किमु करोतु वराकी
मीलिताम्बुरुहनेत्रपुटाऽभूत् ॥

सर्ग ११, पद्य ६ ।

रागवान्[] होकर सूर्य ने अन्य-दिशारूपी-स्त्री (अर्थात् पश्चिम-दिशा) का मुख-चुम्बन[] किया। यह अनर्थ होता देख बेचारी कमलिनी से और कुछ न बन पड़ा; उसने केवल अपने कमलरूपी नेत्र बन्द कर लिये। और करती क्या?

वर्षा के अन्तर्गत मयूरों का वर्णन करते हुए विक्रमाङ्कदेव अपनी रानी चन्द्रलेखा से कहता है-


  1. रागवान् के यहाँ दो अर्थ हैं-अनुरागशील और अरुण-वर्ण ।
  2. अर्थात् पश्चिम की ओर गया ।