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पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/८५

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द्विषन्ति राजीवमुखि! स्वजीवितं
ध्रुवं मयूरास्तव निर्जिताः कचैः।
भवन्ति यद्वावचापसम्मुखाः
शिलीमुखप्राप्तिसमुत्सुका इव॥

सर्ग १३. पद्य २७ ।

हे कमल-लोचनी! तेरे केश-कलाप से जीते जाने के कारण, अपने जीवन को धिक्कार समझकर, ये मयूर अवश्य ही प्रात्महत्या करना चाहते हैं, क्योंकि, अपने शरीर को शरों से छेदने की इच्छा से ही मानों ये इन्द्र-धनुष के सम्मुख हो रहे हैं। बिल्हण ने क्या हो अच्छा कारण बताया है! 'विद्यापति' ही ठहरे।

हेमन्त-वर्णन-

मद्वैरिणः कठोरांशोरियं प्रणयभूरिति।
रोषादिव तुषारेण निरदह्यत पद्मिनी।।

सर्ग १६, पद्य १४ ।

"मेरे बैरी सूर्य की यह प्रणयिनी है"-यही समझ कर, जान पड़ता है, तुषार ने कमलिनी को जला दिया!