की उपाधि 'त्रैलोक्यमल्ल' भी थी। इसी ने कल्याण नामक नगरी बसाई।
बिल्हण ने विक्रमांकदेव के भाई सोमेश्वर पौर जयसिंह आदि के विषय में जो कुछ लिखा है उसका बहुत कुछ ग्रंश ताम्र-पत्रों और शिला-लेखों से मिलता है। बिल्हण ने लिखा है कि पालुप के राजा ने भी विक्रमाङ्कदेव की अधीनता स्वीकार की। यह आलुप नगर अर्वाचीन 'अलुपै' अनुमान किया जाता है अलुपै मलावार के समुद्री किनारे पर एक कसबा है।
विक्रमाङ्कदेव ने ५० वर्ष राज्य किया। उसने 'कलिविक्रम' और 'परमाडिराय' किंवा 'परमार्दिदेव' उपाधियाँ धारण की। उसने 'शक' संवत् का प्रचार बन्द करके अपने नाम से एक संवत् चलाया, पर वह चला नहीं। जिस चन्दलेखा का उल्लेख बिल्हण ने किया है और जिसके स्वयंवर का वर्णन बड़ी धूमधाम से लिखा है उसका असल नाम, शिलालेखों के अनुसार, चन्दलदेवी था।
विक्रमादित्य विद्वानों का बड़ा आश्रयदाता था। बिल्हण के सिवा प्रसिद्ध मिताक्षरा के कर्ता विज्ञानेश्वर भी उसके आश्रित थे। यह बात मिता-