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योरप की यात्रा।

कहीं तंगी और कहीं चौड़ाई देख पड़ती है। कहीं जल ही जल है, किनारे की भूमि देख ही नहीं पड़ती। हम लोगों के सामने वह किनारा मेघों की एक काली रेखा के समान देख पड़ता है। चारों ओर मछुओं की नावें और पालवाली नावें है। बड़े बड़े जहाज़ प्राचीन पृथिवी के बृहत्काय जलजन्तुओं के समान रेंगते हुए आगे बढ़ रहे हैं। इस समय दिन ढल चला है। औरतें गंगा के जल में हाथ-पैर और शरीर धोने आ रही हैं। धूप भी कम होगई है। बाँस, खजूर, आम आदि के बाग़ों के भीतर से कहीं कहीं गांव देख पड़ते है। किनारे की भूमि पर एक बछड़ा गर्दन और पूँछ ऊँची करके एक बड़े स्टीमर के साथ दौड़ रहा है। बहुत से मनुष्य किनारे पर खड़े ताली पीट रहे है। वे जो चमड़ा पहन कर पृथिवी पर आये थे उसके सिवा और कुछ नहीं पहने थे। धीरे धीर अन्धकार हो आया। किनारे की झोपड़ियों में दीपक जल उठे। सारे दिन की ख़ुमारी समाप्त कर हम लोगों ने निद्रा की शरण ली।


योरप की यात्रा

स समय सूर्य अस्ताचल को जा रहे थे। जहाज़ की छत पर पतवार के पास खड़े होकर मैं भारतवर्ष के किनारे की ओर दखने लगा। समुद्र का जल हरा है, समुद्र के तीर की रेखा नीली है। आकाश में मेघ छाये हुए हैं। सन्ध्या रात्रि की ओर और जहाज़ समुद्र के मध्य की ओर धीरे धीरे आगे बढ़ रहे हैं। बाई ओर बम्बई के अपोलो बन्दर की एक लंबी रेखा अभी तक देख पड़ती