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योरप की यात्रा।

पहले हम लोग अपने एक पूर्व-परिचित घर पर उपस्थित हुए और जाकर उसका द्वार खटखटाया। जिस दासी ने आकर द्वार खोला उसे मैं नहीं पहचानता। उससे मैंने पूछा कि मेरे मित्र घर में हैं कि नहीं? उसने उत्तर दिया कि अब वे इस घर में नहीं रहते। मैंने फिर पूछा कि वे अब कहाँ रहते हैं। उसने उत्तर दिया कि मैं नहीं जानती। आप लोग आकर इस कमरे मेँ बैठें, मैं ऊपर से जाकर पूछ आती हूँ। पहले जिस कमरे में हम भोजन करते थे उसमें जाकर देखा, सभी उलट पलट गया है। वहाँ टेबल पर समाचार-पत्र और पुस्तकें रक्खी हुई हैं। वह कमरा इस समय अतिथियों के बैठने के लिए प्रतीक्षा-गृह बना है। थोंड़ी देर के बाद उस दासी ने पता लिखा हुआ एक कार्ड लाकर हम लोगों का दिया। मेरे मित्र इस समय लन्दन के बाहर किसी अपरिचित स्थान में रहते हैं। निराश होकर हम लोग उस अपने पूर्व-परि- चित घर से बाहर निकले।

इस समय मन मेँ यह कल्पना उठी मानों मृत्यु के बहुत दिनों के बाद हम फिर पृथिवी पर लौट आये हैं। मैं जिस घर में पहले की यात्रा में रहा था उस मकान के समीप आकर दरबान से पूछा―अमुक महाशय इस घर मेँ रहते हैं? उत्तर मिला―"नहीं। बहुत दिन हुए, वे तो यहाँ से चले गये।" चले गये? वे भी चले गये! मैंने समझा था कि केवल मैं ही चला गया था, पृथिवी सहित और सब यहीं है। पर अब तो मालूम होता है कि मेरे चले जाने के बाद सभी यथासमय यहाँ से चले गये। अब उन जान- पहचान के मनुष्यों को ढूँढ़ निकालना बड़ा कठिन है। अब उन