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विचित्र प्रबन्ध।

से दर्शक केवल श्रान्त ही होता है। केवल विस्मय का आनन्द चित्त को परिपूर्ण नहीं कर सकता; वह मन का इधर उधर भट- काता ही है।

अन्त को यही कहने की इच्छा होती है कि अच्छी बात है भाई, मैं माने लेता हूँ कि तुम एक बहुत बड़े शहर हो, बहुत बड़े देश हो तुम्हारी शक्ति और ऐश्वर्य की सीमा नहीं है। इसके लिए प्रमाण देने की भी आवश्यकता नहीं। तथापि यहाँ से घर लौट जाने मेँ ही मेरी जान बचेगी। वहाँ मैं सबको जानता- पहचानता हूँ, वहाँ मैं बाहरी दिखावे के भीतर घुस कर मनुष्यत्व का उपभोग कर सकता हूँ। वहाँ मैं अनायास आनन्द का उप- भोग कर सकता हूँ। वहाँ मैं बिना प्रयास के विचार कर सकता हूँ, प्रेम कर सकता हूँ। जहाँ यथार्थ मनुष्य है वहाँ यदि बे-रोक- टोक मेरा प्रवेश हो सकता तो यहाँ भी रहना प्रवास नहीं मालूम होता।

इस समय 'कथामाला' की एक कहानी याद आती है―

एक चतुर गीदड़ ने एक बगले को भोजन करने के लिए अपने यहाँ न्योता दिया। समय पर बगला उपस्थित हुआ। जाकर उसने देखा कि बड़े बड़े थाल मीठे चाटने के पदार्थों से भरे हुए हैं। कुशल-प्रश्न के बाद गीदड़ ने कहा―आओ भाई, अब भोजन प्रारम्भ कर दिया जाय। गीदड़ इतना कह कर बड़े प्रेम से थाल में रक्खे हुए पदार्थों को चाटने लगा। बगला बेचारा क्या करे? वह बार बार चोंच से ठोकर मारता है पर निष्फल, उसके मुँह में कुछ भी नहीं जाता। अन्त को बगले न व्यर्थ प्रयत्न करना छोड़