पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२१८

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पञ्चभूत । हैं। हम लोगों का कार्य-क्षेत्र विशाल नहीं है, इस कारण हमारे कार्यों का गौरव भी कम है, इस बात को मानने के लिए में तैयार नहीं। पंशी, स्नायु, हड्डी और चर्म आदि का स्थान बड़ा होता है, पर मर्म बहुत थोड़े ही स्थान में रहता है। हम लोग समस्त मानव- ममाज के उसी मर्म-स्थान में रहती हैं। पुरुष-जाति के देवतागण बैल, भैंसा आदि बनवान् पशुओं पर चढ़कर भ्रमण करते हैं, परन्तु स्वा-देवियां हृदय-कमल में विराजती हैं। वे एक विकसित सुन्दरता के बीच अपनी पूर्ण महिमा में विराजमान हैं। इस पृथिवी में यदि मंग पुनर्जन्म हो तो नारी का ही जन्म हो । भिक्षुक न होकर मैं अन्नपूर्णा ही बनी रहूँ। एक बार विचार की दृष्टि से देखा, इस मनुव्य. समाज में प्रतिदिन कितनं राग, शोक, तुधा, श्रान्ति, आदि का मामना करना पड़ता है। हर घड़ी कर्म-चक्र कं घूमने से ढंर की ढेर धूल आकर जम जाती है। हर एक घर की रक्षा कितनी प्रीति से की जाती है। यदि कोई प्रसन्न-भूति, प्रसन्नमुखी, धीरा लोक- वत्सला देवी सिरहाने आकर बैठें और मनुष्य के तपे हुए मन्तक को अपने स्पर्श से शीतल कर, अपने कार्यदक्ष और सुन्दर हाथों से प्रतिक्षण उसकी मलिनता दूर करें और घर में जाकर सदा उसके कल्याण और शान्ति के लिए प्रयत्न कर, तो उस देवी के कार्य स्थल के सङ्कार्ण होने पर भी उसके कार्यों की महत्ता कौन स्वीकार नहीं कर सकता ? यदि उस लक्ष्मी की उज्वल मूति हमारं हृदय में विराजित रहे तो अवश्य ही हमारा नारी-जन्म सफल हो । इसके बाद हम सब लोग थोड़ी देर तक चुप बैठे रहे। इस सन्नाटे से नदी बहुत ही लज्जित हुई । उसने मुझसे कहा-