पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२४०

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पञ्चभूत। २२६ हैं उसी में हम लोग परमात्मा को देखते हैं। मनुष्य में अनन्त के अनुभव का नाम ही प्रेम है और प्रकृति में अनन्त के अनुभव का नाम सौन्दर्य है। इससे यह बात साफ़ साफ़ जानी जाती है कि वैष्णव धर्म में यही तत्त्व गूढ भाव से वर्तमान है। क्षिति ने मन ही मन सोचा, कैसे दुःख की बात है। फिर यह दार्शनिक विचार न मालूम कहाँ से कूद पड़ा । नदी और दीप्ति का भी दार्शनिक विषय अच्छे नहीं लगते । पर जो बात सहमा मन कं अन्धकार को भेदता हुई बाहर निकल जाती है, उसके पीछे पीछे अन्त तक चलने का भाव के शिकारियों को अभ्यास । अपनी बात स्वयं समझने के लिए बहुत सी इधर उधर की बानें कहनी पड़ती है। पर दूसरे लोग समझते हैं कि यह तत्वो- पदेश करता है। मैंने कहा-वैष्णव धर्म ने संसार के सभी प्रेम-मम्बन्धों में ईश्वर का अनुभव करने की चेष्टा की है। माता अपने पुत्र को दंग्य कर आनन्दित हो रही है। वह अपना समस्त हृदय प्रकाशित करके भी इस नन्हें से मनुष्य के अंकुर को स्थान नहीं दे सकती, वह इस बालक में ईश्वर की उपासना करती है, इस छोटे से बालक अनन्त वत्सलता का अनुभव करती है। जी दास अपने स्वामी कं कार्य के लिए प्राण दंन को तैयार है, जो मित्र अपने मित्र के लिए स्वार्थ-त्याग करता है, स्त्री और पुरुष परस्पर आत्म-त्याग करने के लिए व्याकुल हैं, ये सब परम प्रेम में असीम और लोका- तीत ऐश्वर्य का अनुभव करते हैं। तिति ने कहा-सीमा में असीम, प्रेम में अनन्त आदि बातें