पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२७८

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पञ्चभूत। व्योम बोले-ऐसा भी तो मत है कि यह समस्त संसार कृत्रिम है। नदी नं जिनको भावों का प्रकाश कहा है अर्थात् दृश्य. शब्द, गन्ध आदि ये कंवल माया के विलास हैं,-ये हम लोगों के मन की कृत्रिम रचना हैं,---इसका खण्डन कर देना या अप्रामाणिक कहना बड़ा कठिन है । यह सुन कर तिति बिगड़ उठी और उठ कर कहने लगी- तुम सब लोग मिलकर रसोई में सामवेद का पाठ करने बैठे हो। बात तो थी कि भाव को प्रकाशित करने के लिए पद्य की प्राव- श्यकता है कि नहीं. परन्तु तुम लोग सृष्टि-तत्त्व, प्रलय-तत्त्व, माया- बाद आदि का विचार करने लगे। मेरी तो राय यह है कि भावों को प्रकट करने के लिए छन्द की सृष्टि नहीं हुई है। छोटे छोटे वञ्चों को गाना अच्छा लगता है। इसका कारण भावों की मधुरता नहीं है किन्तु छन्दों का सुनने में अच्छा लगना ही है। इसी प्रकार अमभ्यावस्था में निरर्थक शब्द यदि किसी छन्द में कहे जायें तो वे सुनने में अच्छे लगते हैं। अतएव मनुष्य जाति में सबसे प्रथम निरर्थक कविताएँ आदर पाती हैं। मनुष्य जाति की अवस्था ज्यों ज्यां बढ़ती जाती है त्या त्या निरर्थक छन्दों से उसका चित्त ऊबने लगता है, अतएव वह उन छन्दों को सार्थक बनाने का प्रयत्न करता है। वयस्क होने पर भी मनुष्यों में कहीं लुक छिप कर बाल्यभाव रही जाता है। ध्वनि-प्रियता और छन्दों का अच्छा लगना आदि उसी बाल्यभाव के चिह्न हैं। हम लोगों का प्रौढ़ भाग अर्थ और भाव को पसन्द करता है और जो अंश प्रौढ़ नहीं हुआ है उसे ध्वनि और छन्द ही प्रिय होता है ।