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विचित्र प्रबन्ध।

रहती है। नाटक के गौरव के सहारे ही वह अपना गौरव दिखा सकती है।

जिस प्रकार लोक में स्त्री-भक्त पति की हँसी होती है उसी प्रकार नाटक भी यदि अभिनय की अपेक्षा करके अपने को छोटा बनावे तो निःसन्देह वह भी वैसे ही उपहास के योग्य हो उठता है। नाटक का भाव इस प्रकार का होना चाहिए––हमारा अभिनय होता हो तो हो और यदि न हो तो अभिनय का ही भाग्य फूटा समझना चाहिए। इससे हमारी कोई हानि नहीं है!

जो हो, अभिनय को काव्य की अधीनता माननी ही पड़ेगी। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अभिनय को सब कला विद्याओं की गुलामी करनी पड़ेगी! यदि वह अपने गौरव की रक्षा करना चाहे तो उसे उचित है कि जितनी अधीनता न मानने से उसका स्वरूप प्रकाशित न हो सकता हो उतनी ही अधीनता वह स्वीकार करे। उससे अधिक कुछ भी सहायता उसे नहीं लेनी चाहिए। यदि वह उससे अधिक सहायता ले तो यह उनके लिए अपमान है।

यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि नाटक की बातें अभिनय करनेवाले के लिए विशेष आवश्यक हैं। कवि ने हँसी की जो बातें रक्खी हैं उन्हीं से उसे हँसना पड़ता है, कवि उसे जहाँ रोने का मौक़ा देता है वहीं रोकर उसे दर्शकों की आँखों में आँसू लाने पड़ते हैं। किन्तु चित्र की क्या आवश्यकता है? वह तो पर्दे में अभिनय करनेवाले के पीछे लटका रहता है। अभिनेता उसकी सृष्टि नहीं करता; वह केवल पट में अंकित रहता है। मेरी समझ में उसके द्वारा अभिनेता की अयोग्यता और