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वसन्त।

है। परन्तु इससे भी बहुत पहले किसी आदि-युग मेँ हम लोग निःसन्देह वृक्ष थे, यह क्या हम भूल सके हैं? उस आदि-काल के जनहीन मध्याह्न में हम लोगों की शाखाओं के बीच से जब वसन्त का वायु किसी को किसी प्रकार की सूचना दिये बिना अकस्मात् सर सर करता हुआ आता था तब क्या हम प्रबन्ध लिखने बैठते थे या देश के उद्धार के लिए प्रयत्न करते थे? उस समय हम लोग दिन भर खड़े रह कर गूँगे और मूर्ख के समान काँपते रहते थे। हम लोगों का सारा शरीर झरझर-मरमर करता था, जो पागलों के गाने के समान मालूम पड़ता था। जड़ से लेकर छोटी छोटी टहनियों और पत्तों तक में उस समय रस-प्रवाह के कारण चञ्चलता उपस्थित हो जाती थी। उस आदि-काल के फागुन और चैत इसी प्रकार अधिक रस-प्रवाह के कारण आलस्य और अर्थहीन प्रलाप में ही बीत जाते थे। उस समय हमको किसी के आगे कोई भी कैफियत नहीं देनी थी।

यदि कहो कि पीछे दुःख के दिन आते थे―वैशाख-जेठ की कड़ी धूप सिर झुकाकर चुपचाप सहनी पड़ती थी, तो यह बात हम मानते हैं। जिस दिन का जो सुख-दुःख है वह उस दिन इसी तरह ग्रहण करना पड़ता है। सुख के दिनों में भोग को और दुख के दिनों में धैर्य को यदि कोई सहज ही ग्रहण कर सके तो जब सान्त्वना की वारि-धारा दशों दिशाओं को प्लावित करना आरम्भ करती है तब उसे सर्वत्र भरपूर भर रखने की शक्ति रहती है।

किन्तु इन सब बातों को मैं यहाँ कहना नहीं चाहता था। लोग सन्देह कर सकते हैं कि मैं रूपक के द्वारा उपदेश देने बैठा