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विचित्र प्रबन्ध।

प्रचार करने के लिए इस पृथिवी पर आता है। उस संवाद को पाकर मनुष्य का आत्मा नये आश्वास से आश्वासित होता है। यह मनुष्यों के लिए साधारण बात नहीं है। पर इन बातों को सोचने के लिए हमको छुट्टी नहीं।

पुराने समय में मेघ गर्जन से पढ़ने का अनध्याय होता था, वर्षा के समय परदेशी अपने अपने घर लौट आते थे। मैं यह नहीं कह सकता कि वर्षा के दिनों में पढ़ा नहीं जा सकता अथवा विदेश में रहकर काम करना असम्भव है। मनुष्य स्वाधीन है, स्वतन्त्र है, वह जड़-प्रकृति का अनुयायी नहीं है; परन्तु इससे क्या विशाल प्रकृति के साथ उसको बराबर विद्रोह करके ही चलना चाहिए। क्या यह कोई नियम है? यदि मनुष्य संमार के साथ अपनी कुटुम्बिता स्वीकार करे, आकाश में काले काले मेघों का आगमन होते ही पढ़ना और काम करना बन्द कर दे, दक्षिण पवन के प्रति श्रद्धा रखकर उस समय क़ानून की समालोचना करना छोड़ दे, तो मनुष्य का संसार के साथ कुछ असामञ्जस्य न हो। पञ्चांग मेँ भिन्न भिन्न तिथियों को बैंगन, सेम, कुँभड़ा आदि खाना निषिद्ध है। मेरी समझ में और भी कई कामों का निषेध होना चाहिए। किस ऋतु में संवादपत्र का पढ़ना निषिद्ध है, किम ऋतु में आफिस का काम बन्द न करना महापाप है, इन बातों के निर्णय का भार अरसिकों की बुद्धि पर न छोड़ कर शास्त्रकारों को ही इस बारे में नियम बाँध देने चाहिएँ।


वसन्त के दिनों में विरहिनियों के प्राण व्याकुल हो जाते हैं, यह बात हमने प्राचीन काव्यों में ही पड़ी है। आज यह बात