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वसन्त

लिखते सङ्कोच मालूम होता है कि इसे सुनकर लोग उपहास करेंगे। इस प्रकार हम लोगों ने प्रकृति के साथ अपने मन का संबंध तोड़ दिया है। वसन्त मेँ वन-उपवन आदि के बीच फूलों के फूलने का समय उपस्थित होता है। उस समय उनके हृदय के स्वाभाविक विकास का महोत्सव उपस्थित होता है। उस समय आत्म-दान करने के आनन्द में वृक्ष-लता आदि पागल हो उठते हैं। उस समय विधि-विधान की और उनका ध्यान नहीं रहता। जहाँ दो फल लगने को होते हैं वहाँ पचीस कलियाँ निकल आती हैं। तो क्या मनुष्य ही इस प्रवाह को रोक देगा? मनुष्य अपने को न फूलने देगा रन फलन देगा, और आत्मदान करना भी न चाहेगा! तो क्या वह घर झाड़ेगा, बर्तन मलेगा? और जिनके पास यह बला नहीं है वे क्या बैठे बैठे चार बजे तक ऊन का गुलूबन्द बीनेंगे? मनुष्य क्या इतना कोरा मनुष्य है? वसन्त के गूढ़ रस- सञ्चार के द्वारा विकसित तरु-लता-पुष्प-पल्लव आदि से क्या हम लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं है? जो हम लोगों के घर के आँगन को छाया से छिपाये, गन्ध से परिपूर्ण किये और शाखा रूपी हाथों से घेरे खड़े हैं वे क्या हमारे इतने गै़र है कि जिस समय वे फूल उठेंग उस समय हम अचकन पहन कर आफ़िस जाने के लिए तैयार होंगे―उस समय किसी एक अनिर्वचनीय वेदना से हम लोगों का हृदय वृक्ष-पल्लव की तरह काँप न उठेगा?

मैं तो आज वृक्षों के साथ अपनी बहुत प्राचीन काल की आत्मीयता स्वीकार करूँगा। इस बात को आज मैं किसी तरह न मानूँगा कि व्यग्रता के साथ काम करते फिरना ही हमारे जीवन