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पृष्ठ:विदेशी विद्वान.djvu/१०१

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अध्यापक एडवर्ड हेनरी पामर

चे मीकावी जिगर बेहूदा पामर
हमी बाशद निदाहाये सरीरम ।
पये तहरीर हालाते ज़रूरी
मगर वक्त ज़रूरत ना गुज़ीरम ।
मना इनशानो इमलायम हमा पूच
पनीर ई कौले मन ऐ दिल पज़ीरम ।
मनेह बर दोशे मन बारे दबीरी
हक़ीरम मन हकीरम मन हक़ीरम ।

अपने ऊपर ढालकर पामर ने निकोल साहब की फारसी की ऐसी खबर ली कि स्वयं निकोल साहब को पामर की कविता और फारसी की योग्यता की प्रशंसा करनी पड़ी। पामर के फ़ारसी-गद्य के नमूने के तौर पर उस पत्र का कुछ भाग उद्धृत किया जाता है जिसे उन्होंने अपने मित्र और शिक्षक सैयद अब्दुल्ला को लिखा था-

बिरादरे आली जनाब, फैज़माब, वाला ख़िताब, जी उल मज्द वल उला सैयद अब्दुल्ला साहब दाम इनायतहू। अल्लाह अल्लाह। ईचे तहरीर हैरत अफज़ा अस्त कि अज़ किल्के मरवारीद-सिल्के ऑ वाला हमम सरज़द । सबबे अदमे तहरीर मुहब्बत नामैजात न गफलत न तसाहुल बल्कि हकीकत हाल ई अस्त कि दर तसनीफ किताबे सैरो सैयाहीए अरब व तरतीवे नकशा जात हर दियार व ‌अम्सार व हवाली बहरो बर्र कि गुज़रम वर आँहा उफतादा व हालाते तवारीखे पास्तानी वक़ाये व कैफियाते औकाते सफ़र व हज़र खुद व दीगर