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विदेशी विद्वान्

बढ़ती ही गई और प्रतिदिन वह इन विषयों में अधिकाधिक निमग्न रहने लगा। वह धीरे-धीरे उत्क्रान्तिवादी हो गया। उत्क्रान्ति के १६ सिद्धान्त उसने निकाले। संसार के सारे दृष्टादृष्ट व्यापार इन्हीं नियमों के अनुसार होते हैं। इस बात को सप्रमाण सिद्ध करने के लिए उसने अपरिमित श्रम किया। १८४६-४७ में उसने एक नया यन्त्र बनाकर उसका “पेटेन्ट” भी प्राप्त किया। पर उससे उसे विशेष लाभ न हुआ। शायद अपनी अर्थकृच्छता दूर करने ही के लिए उसने ऐसा किया। तथापि उसने अपनी निर्धनता की कुछ भी परवा न की। उसके कारण वह कभी दुःखित नहीं हुआ। अपना काम वह बरा- बर करता गया। जिन-जिन सिद्धान्तो का पता उसे लगता गया उन-उनको वह बड़ी योग्यता, आस्था और निर्लोभता के साथ प्रकट करता गया। यह सृष्टि क्या ईश्वर ने पैदा की है, या पदार्थों में ही कोई ऐसी शक्ति है जिसके कारण वे आप ही आप उत्पन्न हो गये हैं? जन्म क्या है, पुनर्जन्म क्या है, मरण क्या है, धर्म्म क्या है, पाप-पुण्य क्या है, सुख-दुःख क्या है? संसार में जितनी घटनायें होती हैं, किन नियमो के अनुसार होती हैं? दिन-रात वह इन्हीं बातों के विचार और मनन में सलग्न रहता था। इन विषयो के मनन का अभ्यास उसने यहाँ तक बढ़ाया कि संसार में कोई भी ऐसा शास्त्रीय विषय शेष न रहा जो उसके मानसिक विचारों की कसौटी पर न कसा गया हो। सब विषयों का उसने